Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 310
________________ ( २९५ ) उसमें उत्पन्न होता है या उसमें परिणत होता है, इसलिए वह मानव कहलाता है। - १७. मायो-जीव में माया कषाय होती है, जिससे वंचना आदि करता है, इसलिए वह मायावी कहलाता है। १८. योगी-काय, वाङ् और मन ये तीन योग जीव में होते हैं, इसलिए उसे योगी कहा गया है । १६ संकुट-अत्यन्त सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थात् सर्वजघन्य शरीर से प्राप्त होने पर जीव प्रदेशों को संकुचित करके उसमें रहता है, इसलिए वह संकुट कहलाता है। २०. असंकुट–समुद्धात अवस्था में सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त कर लेता है, इसलिए वह असंकुट कहलाता है। २१. सक्ता-संसारी जीव अपने सगे सम्बन्धी, मित्रों तथा परिग्रह आदि में आसक्त रहता है, इसलिए संसारी जीव को सक्ता भी कहते हैं । २२. अग्र-आत्मा अग्र भी कहलाती है। अग्र शब्द का निरुक्त अर्थ गमन करना या जानना है। आत्मा ही ज्ञाता है, इसलिए वह अग्र कहलाती है। दूसरी बात यह है कि छह द्रव्यों, सात तत्त्वों में तथा नव पदार्थों में आत्मा अग्र है अर्थात् प्रधान है, इसलिए वह अग्र कहलाती है। २३. समय--आत्मा को जैन आचार्यों ने समय कहा है। अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है 'जीव नामक पदार्थ समय है। जो एकत्व रूप से १-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवप्रबोधिनी टीका, ३३६ । २-व्यवहारेणं सूक्ष्मनिगोद लब्धप्रर्याप्तक सर्वजघन्य शरीर प्रमाणेन संकुटति संकुचित प्रदेशोभवतीति संकुट: ।-वही० ३३६ । ३-वही, ३३६। ४-व्यवहारेणं स्वजनमित्रादि परिग्रहेषु सजतीति सक्ता, निश्चयेनासक्ता। -वही, ३३६ । ५-अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्टित:-तत्वानुशासन : नागसेन मुनि, ६२; तत्त्वार्थवार्तिक, ६, २७, २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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