Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 291
________________ २७६ : जैनदर्शन में आत्म- विचार रणनैकान्त ( साध्य के अभाव वाले अधिकरण में हेतु का रहना असाधारण अनंकान्त है ) नामक दोष से दूषित है, क्योंकि सन्तानत्व- हेतु दृष्टान्त में नहीं रहता है । पूर्व - अपर सामान्य जाति क्षण प्रवाह रूप सन्तानत्व है, यह दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह अनैकान्तिक दोष से दूषित है । पाकज परमाणु के रूपादि में सन्तानत्व-हेतु रहता है, किन्तु पाकज परमाणु के रूपादि का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता । प्रभाचन्द्र की तरह मल्लिषेण ने भी 'स्याद्वादमंजरी' में सन्तान हेतु को दूषित बतला कर सिद्ध किया है कि इस हेतु से बुद्धि आदि गुणों से विहीन मोक्ष का स्वरूप- मानना ठीक नहीं है । " उदाहरण भी ठीक नहीं है : अपने सिद्धान्त की पुष्टि में न्यायवैशेषिकों द्वारा प्रस्तुत किया गया दीपक का उदाहरण भी ठीक नहीं है, क्योंकि दीपक का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता । दीपक के बुझने पर दीपक के चमकने वाले ( भासुर रूप) तैजस परमाणु की पर्याय बदल जाती है। तात्पर्य यह कि वे तैजस परमाणु भासुर रूप को छोड़ कर अन्धकार रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । इस प्रकार, सिद्ध है कि शब्द, विद्युत् एवं प्रदीपादि का उच्छेद पर्याय रूप से होता है, अर्थात् - पूर्व - पर्याय नष्ट हो जाती है और वे उत्तर पर्याय धारण कर लेते हैं । अतः, साध्य विकल दृष्टान्त होने के कारण बुद्धि आदि गुणों के उच्छेद-रूप मोक्ष सिद्ध नहीं होता । " ज्ञान मात्र निःश्रेयस् का हेतु नहीं : विपर्यय ज्ञान के व्यवच्छेद के क्रम-रूप तत्त्वज्ञान को निःश्रेयस् (मोक्ष) का हेतु मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विपर्यय ज्ञान का विनाश होने पर धर्म-अधर्म का अभाव हो सकता है और धर्म-अधर्म के अभाव से उनके कार्य - शरीर, इन्द्रिय का अभाव होने पर भी अनन्त और अतीन्द्रिय समस्त पदार्थों को जानने वाले सम्यग्ज्ञान और सुखादि सन्तान का अभाव नहीं होता । इन्द्रियज ज्ञानादि गुणों का उच्छेव जैन वर्शन को भी मान्य : प्रभाचन्द्राचार्य प्रश्न करते हैं कि दो प्रकार के बुद्धि आदि गुणों में से मोक्ष में कौन-से गुणों का विनाश होता है, क्या इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले बुद्धि आदि गुणों का अथवा १. स्याद्वादमञ्जरी, का० ८, पृ० ६१-६२ ॥ २. ( क ) न्यायकुमुदचन्द्र, भाग १, पृ० ८२७ | (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, परि० २, पृ० ३१८ । ३. वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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