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२०० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
१. ज्ञानावरण कर्म : आत्म-स्वरूप-विमर्श लिखते हुए हम यह उल्लेख कर चुके हैं कि जैन दर्शन में आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । आत्मा के इस स्वरूप को अपने प्रभाव से आच्छादित करने वाला कर्म, ज्ञानावरण कर्म कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म का उदय होने से आत्मा की ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं हो पाती है । गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)२ में कहा गया है कि जिस प्रकार कपड़े की पट्टी नेत्रों में बांध देने से नेत्रों की पदार्थों को जानने की शक्ति रुक जाती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के उदय से सकल पदार्थों को जानने की शक्ति अवरुद्ध हो जाती है । इस कर्म के आस्रव के कारण प्रदोष, निह नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात हैं। यहां प्रश्न होता है कि ज्ञानावरण कर्म विद्यमान ज्ञानांश का आवरण करता है अथवा अविद्यमान ज्ञानांश का? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अकलंकदेव ने कहा है कि वह द्रव्यार्थ की अपेक्षा विद्यमान ज्ञानांश का और पर्याय की अपेक्षा अविद्यमान ज्ञानांश का आवरण कर देता है। दूसरी बात यह है कि मति आदि ज्ञान कोई वस्तु नहीं है जिसके ढंक देने को मतिज्ञानावरणादि कहा जा सके, किन्तु मत्यावरण आदि के उदय होने से आत्मा में मति आदि ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए वे आवरण कहलाते हैं ।
ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का विनाशक नहीं है : आत्मा की ज्ञानशक्ति के घात करने का अर्थ यह नहीं है कि ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का विनाशक है क्योंकि जीव ज्ञान-दर्शन स्वरूप है और उसका विनाश माना जाए तो जीव का भी विनाश मानना पड़ेगा । अतः ज्ञानावरण कर्म से ज्ञान का विनाश नहीं होता है, इसलिए उसे ज्ञानविनाशक नहीं कहा जा सकता है ।
ज्ञानावरण-कर्म की प्रकृतियाँ : ज्ञानावरण कर्म के पांच भेद हैं-१. मति ज्ञानावरण, २. श्रुत ज्ञानावरण, ३. अवधि ज्ञानावरण, ४. मनः पर्याय ज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण ।
१. सर्वार्थसिद्धि, ८।३, पु० ३७८ एवं ८।४, पृ० ३८० । २. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० २१ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१०।। ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।६।४-६, पृ० ५७१ । ५. ण, जीवलक्खणाणं णाणदंसणाणं विणासाभावा । विणासे वा जीवस्स विणासो होज्ज," ।
-धवला, पु० ६, खंड १, भा० ९-११, सू० ५, पृ० ६ । ६. षट्खण्डागम, पु० १३, खं० ५, भा० ५, सू० २१, पृष्ठ २०९ ।
तत्त्वार्थसूत्र, ८६।
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