Book Title: Jain Dharm Prakash 1947 Pustak 063 Ank 05 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 4
________________ 1959547454745454545464745454545454545454545454545459795 ॥ प्रभु नाम का जाप ॥ ( कवि - बालचंद हीराचंद - मालेगांव ) कर वस्त्रभूषा साधु सम निश्चल दिखे योगी बड़ा, कोई संत समं मुद्रा बना कर ध्यान मग्न रहे खड़ा । माला फिरावे यंत्रवत् मुख मंत्र जपता नाम का, • दिखता बड़ा कोई संत आया बड़े तीरथ धाम का ॥ १ ॥ चंचल फिरे जब नेत्र उसके धारके मोहांधता, है भटकता मन भ्रमण करता दश दिशा में खोजता | जा कोइ गली में छाटमें बाजार में है भटकंता, माला बिचारी क्या करे आत्मा न उसमें जोडता ॥ २ ॥ बक सम बना वह नारियों के मुँह देखे ताकता, नयनो नचावे चपल चंचल मोहवश बन व्यग्रता | है क्रिया तन की एक दूजी बनी मन की तब वृथा, माला बिचारी क्या करे ढोंगी जनों की यह प्रथा ॥ ३ ॥ बेखबर हो बेशरम धर्मी बना जो धीटाइ से, उसको पता नहि क्या नतीजा निकलता है ढोंग से । आत्मा उसीका पतित बनता लाभ नहि कुछ पा सके, माला बिचारी क्या करे जो मन ठिकाने ना रखे ॥ ४ ॥ ध्येय ध्याता ध्याने जिसका एकसा वह मोक्ष कारण बन सके दुसरा वृथा ध्येय जिसका शुद्ध नहिं है ध्यान भटके माला बिचारी क्या करे रहता न जो स्थिर ध्यान में ॥ ५ ॥ जिनचरण का कर ध्यान जिसका मुक्ति का ही ध्येय है। सच्चा वही ध्याता जगत में धन्य उसका श्रेय है । माला जपे सब कोई घर में मंत्र मुख से ऊचरे, माला बिचारी क्या करे मन भटकता जब वह फिरे ॥ ६ ॥ मन आत्मा हो एक जब लगती लगन नहि व्यग्रता, टूटते बंधन तटातट मोह भागे दौडता । आनंद को उपमा न कोई मूर्तिमंत प्रसन्नता, ऐसा जपे जो जाप उसके चरण संबंध से, आरंभ से, मोह में, सब RY Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y Y नमता धन्यता ॥ ७ ॥ दे दान तुझको तव कृपा का स्थिर मन करता सिखा, तेरी कृपा बिन ध्यान न बने मंत्र माला जप वृथा । जिनराज तेरे चरण में विनती करूं शुभ भाव से, बालेन्दु उचरे मार्ग बतला मनोलय का शांति से ॥ ८ ॥ YYYY - ४ - क NERVENZIPage Navigation
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