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स ५ । चारित्र और विचार
૧૧૭ यथार्थ समझनेवाले के लिये उपरोक्त भावना प्राप्त करने की है। यह नियम बहुत सरल समझने आजावे ऐसा कुदरत के दुसरे नियमों की तरह शास्त्रीय भी है । इस नियम को समझने से पुरानी से पुरानी अनिष्ट मिथ्या आसक्ति की पड़ी हुइ टेव दूर कर सकते है । और नई इष्ट तथा सत्य अने सुख को प्राप्त करानेवाली देवी टेववाला स्वभाव बना सकते हैं। इतना ही नहीं अपने जीवन में परिवर्तन करना चाहें तो कर सकते हैं, आवश्यकता नियम को समझ लेने पर उस मुताबिक वर्ताव करने की तीव्र अभिलाषा होना चाहिये ।
मनुष्य का चारित्र यह उसके विचार का ही परिणाम है । प्रत्येक कार्य के मूल में विचार ही आधाररूप से हुवा है। अपनी भावना अनुसार ही अपने बाह्मकार्य का जन्म होता है, और यह कार्य वारम्वार करने से ऐसी ही आदत्त व टेव हो जाती है, इसी से ही चारित्र स्वभाव बनता है । अपने को अपना जैसा चारित्र बनाना हो वैसे ही विचार करने का ध्यान में रखना चाहिये। जैसा विचार वैसा उच्चार, जैसा उच्चार वैसा आचार होना चाहिये । नहीं तो विचार कुछ है, उच्चारण और ही हैं व आचरण और कुछ ही है। इसलिये विचार, वाणी व वर्तन ऐक सा होना चाहिये।
जो अनिष्ट आचरणवाला कार्य अपने को त्यागने लायक हो, किंवा वैसा कार्य करने की अभिरुचि न हो, वह कार्य जिन विचारों से जन्म पाता हो वैसे विचार अपने को नहीं करना चाहिये, मनशक्ति का सामान्य नियम ही ऐसा है कि ऐक विचार को अमुक टाईम तक मगज़ में रखने से मगज़ के गतिवाहक तंतुओं पर इस को असर हुवे विना नहीं रहती, आखिर उस विचार के मुताबिक कार्य होने का प्रसंग आजाता है, व कार्य हो जाता है । उदाहर्णार्थ जसे मनुष्य हल्के विचारों से चोरीयां, खुनी कार्य व व्यभिचार आदि करते हैं, व उच्च विचारों से प्रभुभक्ति, निष्काम सेवा, दया, दान व परोषकारादि कार्य करते है इसी से शक्ति का विकास होता है, देवी सद्गुण विकसित होते हैं, और फिर वे महान् वीरता के कार्य करते हैं। इसी प्रकार हल्के कार्य करनेवाले प्रारंभ में कम प्रसिद्ध होते हैं फिर वही महान डाकु, महान् खुनी, व महान् व्यभिचारशिरोमणी कहलाते हैं। इसका सारांश यही है कि उच्च में उच्च व नीच में नीच कृत्य का मूल कारण उससे सम्बन्ध रखनेवाले विचार ही होते है। (चालु)