Book Title: Jain Dharm Prakash 1947 Pustak 063 Ank 05
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ YYYYYYYYYYY ॥ चारित्र और विचार || Queue תב חבר अमेरिकन विद्वान मी. राल्फ वाल्ड्रोट्राईनकृत पुस्तक के गुजराती अनुवाद से हिन्दी अनुवादक - राजमल भंडारी - आगर ( मालवा ) अपने शुभ या अशुभ विचार कार्यरूप में परिणीत होते है । और कार्य करते करते वह कार्य स्वभाव, आदत या देव व मुहाब्रे में हो जाता है । मनुष्य जीवन का क्रम ही ऐसा होता है कि जैसे जैसे विचार होते है वैसी भावना प्रबल होती जाती है और वह शिघ्र या विलम्ब से कार्यप्रदेश में प्रगट हुवे बिना नही रहती । यह महान् और अबाध्य नियम के मुताबिक अपने जीवन के प्रत्येक समय में कुछ न कुछ ऐसा स्वभाव व आदत व देव हो जाती हैं, जीसमें कीतनी ही इष्ट होती है व कीतनी ही अनिष्ट मी हो सकती है । यह पडी हुई अनिष्ट टेव साधारण अल्प प्रमाणमें होती है, वहांतक तो हानिकारक नहीं होती लेकिन जहां इसका प्रमाण विशेष हुवा कि फिर यह दुःखदायक और शौकजनक हो जाती है । इसी प्रकार इष्ट पडी हुई टेव, अपने को सुखशान्ति, आनन्द व प्रोत्साहन देनेवाली होती हैं । यहां यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि अमुक स्वभाव को किंवा देव को अपने में आने देना या नहीं क्या ? यह अपने हाथ में है या दुसरी तरह से कहें तो क्या ? चारित्र स्वभाव बनाना यह देवाधीन हैं या अपने स्वयं के हाथ में हैं ? निश्चय से यह अपने ही हाथमें हैं । पूर्ण तौर से निज के ही अधिकार में हैं, वस्तुतः देव के नाम का जो इसमें आरोपण किया जाता है वह मिथ्या है | सृष्टि के नियम अनुसार कार्य कारण की सांकल अखंड तौर से कार्य करती रहती हैं । इसी महानियम के अनुसार ऐसा प्रत्येक मनुष्य छाती पर लगा कर कह सकता है, और हर मनुष्य को इस तरह कहना भी चाहिये । अपनी पूर्ण द्रढ़ता और निश्चयपूर्वक अंतःकरण में इस महानियम के अनुसरती हुई भावना निःशंकता से ठसाना चाहिये ऐसी भावना की निःशंक प्रतीति प्राप्त करना कोई ऐसा विषम कार्य नहीं है । एक की संख्या के माप को समझनेवाले के लिये दो की संख्या के माप को जानना जीतना सरल है, उतना ही सरल चारित्र के बंधारण का मुख्य नियम →(??)

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32