Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ स्यावाद और जगत् / ३७ का पिण्ड है। भाव उसकी अवस्थाएं हैं । वे भी अनन्त होती हैं । अवस्था से वियुक्त कोई द्रव्य नहीं होता और द्रव्य से वियुक्त कोई अवस्था नहीं होती। जितने परिवर्तन होते हैं, वे सब द्रव्य में ही होते हैं और जितने द्रव्य हैं वे सब परिवर्तन के कारण ही अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं । परिवर्तन कहां होता है, इसकी व्याख्या क्षेत्र के बिना नहीं की जा सकती। इसके दो रूप हैं-आकाश और दिक् । आकाश वास्तविक है। दिक निरपेक्ष तत्त्व नहीं है, वह आकाश का ही कल्पित रूप है। ऊर्ध्व, निम्न आदि सापेक्ष हैं । उनका अस्तित्व हमारी चेतनाएं हैं। परिवर्तन कब होता है, इसकी व्याख्या काल के बिना नहीं की जा सकती। सापेक्ष काल का भी निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है । वह द्रव्य का ही एक पर्याय है । उनका तिर्यक् प्रचय नहीं है-स्कन्ध नहीं है। वह केवल ऊर्ध्व प्रचय है—पौर्वापर्य या क्रम है। जो जीव और अजीव के परिवर्तन का क्रम हैं, वह नैश्चयिक काल है। ज्योतिश्चक्र पर आधारित जो घटनाचक्र है, वह व्यावहारिक या सापेक्ष काल है। आइन्स्टीन का मंतव्य ___आइन्सटीन की चतुर्विस्तारात्मक अखण्डता में द्रव्य के आकाश और काल से परिवर्तित भावों-पर्यायों का विचार है। उनके सापेक्षवाद के अनुसार 'एक रेलमार्ग एक विस्तारात्मक आकाशीय अखण्डता है और उस पर चल रही गाड़ी का चालक किसी भी समय किसी एक समन्वयात्मक बिन्दु-एक स्टेशन या मील के पत्थर को देखकर अपनी अवस्थिति को मालूम कर सकता है परन्तु एक जहाज के कप्तान को दो विस्तारों की चिन्ता करनी पड़ती है । समुद्र की सतह एक द्विविस्तारात्मक अखण्डता है और वे समन्वयात्मक बिन्दु-जिनसे नाविक द्विविस्तारात्मक अखण्डता में अपनी अवस्थिति का निश्चय करता है, अक्षांश और देशान्तर हैं। एक विमान चालक को अपना विमान त्रिविस्तारात्मक अखण्डता के बीच से ले जाना पड़ता है, अत: उसे न केवल अक्षांश और देशान्तर की, बल्कि पृथ्वी से अपनी ऊंचाई का भी ध्यान रखना पड़ता है। एक विमान चालक की अखण्डता जिस रूप में हम आकाश को देखते हैं, उसी से बनती है। दूसरे शब्दों में, हमारे संसार का आकाश एक त्रिविस्तारात्मक अखण्डता है। काल का महत्त्व 'लेकिन गति से सम्बन्धित किसी प्राकृतिक घटना की चर्चा करते समय आकाश में उसकी अवस्थिति को ही व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है। यह भी बतलाना आवश्यक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164