Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 135
________________ निर्वाणवाद धार्मिक आराधना का मुख्य उद्देश्य है-निर्वाण । वह ऐसी अवस्था है, जहां सारे द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। भारतीय चिंतन में धर्म की दो धाराएं हैं—प्रवर्तक धर्म और निवर्तक धर्म । वैदिकपरम्परा प्रवर्तक धर्म की धारा है, श्रमण-परम्परा निवर्तक धर्म की धारा है। प्रवर्तक धर्म ने प्रवृत्ति का विकास किया, निवर्तक धर्म ने निवृत्ति का विकास किया। प्रवृत्ति से फलित हुई–व्यक्ति पूजा। प्रवर्तक धर्म की धारणा है-स्वर्ग पाना है और देवताओं को प्रसन्न रखना है। देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ, पूजा आदि के अनुष्ठान किए गए और स्वर्ग पाने के लिए भी अनेक अनुष्ठानों का आयोजन किया गया। निवर्तक धर्म की धारा स्वर्गवादी धारा नहीं है। यह मोक्षवादी धारा है। इसमें मुक्त होने को लिए देवताओं की मनौती नहीं मानी गई, देवताओं को प्रसन्न रखने का अनुष्ठान नहीं किया गया। निवर्तक धर्म में संन्यास की परम्परा को महत्त्व मिला। प्रवृत्ति का संन्यास, भोग का संन्यास, कर्म का संन्यास । उसमें संन्यास का विकास हुआ और संन्यास के द्वारा मोक्ष तक पहुंचने की प्रक्रिया का विकास हुआ। निर्वाण की प्रक्रिया निवर्तक धारा में मोक्ष की प्रक्रिया प्रतिपादित हुई। जीव बद्धावस्था में निरन्तर विजातीय अवस्था में बंधता रहता है। जब तक यह बंधन का क्रम नहीं टूटता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। बंधन-मुक्ति के दो उपाय बतलाए गए-संवर और निर्जरा-आने वाले नये कर्मों का निरोध और पुराने संचित कर्मों का निर्जरण । निरोध और निर्जरण-ये दोनों ऐसे तत्त्व हैं, जिनके द्वारा पुराने संस्कार टूट जाते हैं और नये संस्कार का बंध नहीं होता। इनके द्वारा आत्मा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है, मक्त हो जाती है। जैनदर्शन में मोक्ष की प्रक्रिया को समझने के लिए नव तत्त्व का निरूपण किया गया। मूल तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । मोक्ष के बाधक तत्त्व हैं—आस्रव, पुण्य, पाप और बंध । मोक्ष के साधक तत्त्व है—संवर और निर्जरा। इन सारे बाधक और साधक तत्त्वों का विवेचन और उसकी साधना की पूरी प्रक्रिया Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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