Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 137
________________ निर्वाण निषेधात्मक नहीं है जैनदर्शन का निर्वाण निषेधात्मक नहीं है। कुछ दार्शनिक मानते हैं— मुक्त होने के बाद अस्तित्व समाप्त हो जाता है, व्यक्ति शून्य में चला जाता है। जैनदर्शन में यह तथ्य स्वीकृत और सम्मत नहीं है। निर्वाण की सबसे बड़ी उपलब्धि है अनंत आनन्द, जो किसी भी भौतिक पदार्थ या पौगलिक पदार्थ से प्राप्त नहीं होता । निर्वाण में अनिर्वचनीय आनन्द है । इसे समझाने के लिए एक उपमा का प्रयोग किया गया - दुनिया भर के जितने पौगलिक सुख हैं, उन सारे सुखों को पिंडीभूत किया जाए, इकट्ठा किया जाए, उन सब सुखों के पिंड को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए और तराजू के दूसरे पलड़े में निर्वाण के सुख को रखा जाए तो भी निर्वाण का सुख भारी होगा, पौगलिक सुख का पलड़ा ऊपर चढ़ता ही चला जाएगा। जितने पौगलिक सुख हैं, उन सब सुखों से भी शतगुणा सुख और आनंद निर्वाण में है । उसके सुख को बताया नहीं जा सकता । निर्वाण चैतन्यमय है एक आदिवासी नगर में चला गया । उसने नगर को देखा । बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं देखी, बाजार देखे, वस्तुएं देखी, भोजन के अनेक प्रकार देखे, पेय वस्तुएं देखीं, आभूषण और साज-सज्जा देखी। उसे सब कुछ अत्यन्त सुन्दर लगा। नगर देखकर वह जंगल में अपनी झोंपड़ी में पहुंचा। परिवार के लोगों ने पूछा- 'तुम कहां गए थे ?' वह बोला- 'मैं नगर गया था । ' 'बताओ ! नगर कैसा है ?' निर्वाणवाद / १३५ वह क्या बताए ? वह जानता तो है, पर बता नहीं सकता। क्योंकि सामने वाले व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने कभी नगर देखा ही नहीं है, जिन्होंने झोपड़ी के सिवाय बड़ी अट्टालिका को देखा ही नहीं है, जिन्होंने झोंपड़ी की मिट्टी के सिवाय कभी स्फटिक का आंगन देखा ही नहीं है, जिन्होंने सदा सूखी रोटियां खाई हैं, पकवान कभी देखे ही नहीं । वह उन्हें बताए तो कैसे बताए ? वह जानता है पर बता नहीं सकता । यह है अनिर्वचनीय बात । जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। मोक्ष के जो सुख हैं, आनन्द हैं, वे अत्यन्त घनीभूत हैं । उन्हें भोगने वाले जानते हैं पर कह नहीं सकते। जो स्वयं अनुभव करते हैं, वे भी उसे बता नहीं सकते । I कुछ दार्शनिक मोक्ष को अचेतन मानते हैं। जैनदर्शन का निर्वाण चैतन्यमय है । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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