Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 140
________________ १३८ / जैन दर्शन और अनेकान्त यह मूर्छा है। शरीर के साथ व्यक्ति की मूर्छा सघन बनी हुई है। वह शरीर से परे की कोई बात सोच ही नहीं सकता। व्यक्ति को लगता है-शरीर नहीं होगा तो क्या होगा? वह शरीर से परे जाने की कल्पना नहीं कर सकता। ___ मूर्छा के कारण निर्वाण सिद्धान्त को समझने में बड़ी कठिनाई होती है। कुछ लोग कहते हैं—निर्वाण में जाकर क्या करना है? इस प्रकार से निकम्मा बैठ जाना है। हमें क्रियाशील रहना पसन्द है, अकर्मण्य या निकम्मा बैठ जाना पसन्द नहीं है। ऐसा कहने वाले मूर्छा के स्वर में बोलते हैं, उन्हें सच्चाई का पता नहीं है। निवृत्ति का परिणाम ___भगवान महावीर निर्वाणवादियों में प्रधान रहे हैं। उन्होंने निर्वाण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने यह नहीं कहा—तुम कुछ भी मत करो, सब कुछ छोड़ दो। जब तक जीवन है, शरीर है, तब तक आदमी को सब कुछ करना है। उसे धीरे-धीरे संवर और निर्जरा का विकास करना है, मूर्छा को तोड़ना है और जिस दिन मूर्छा का चक्रव्यूह टूटेगा, सूक्ष्म शरीर के बन्धन भी ढीले पड़ जाएंगे। जब सूक्ष्म शरीर के बन्धन ढीले पड़ेंगे, सूक्ष्म शरीर भी छूट जाएगा और एक ऐसी अवस्था का विकास होगा, जिसमें शरीर नहीं रहेगा। अशरीर अवस्था में आनन्द, चैतन्य और शक्ति का साम्राज्य है। वहां पहुंच जाने पर शरीर की बात छोटी लगने लग जाती है। एक शारीरिक अवस्था और एक अशरीर की अवस्था दोनों की तुलना करें तो हम निर्वाण के रास्ते को समझ पायेंगे और यह निर्वाणवादी अवस्था हमें एक नयी दिशा प्रदान करेगी। आज प्रवृत्ति-बहुलता के कारण मानसिक तनाव, आपा-धापी, संघर्ष, छीना-झपटी, लूट-खसोट चल रही है । जैसे-जैसे समाज में निवृत्ति का विकास होगा, निवर्तक धारा का विकास होगा, सामाजिक शोषण कम होगा, आपा-धापी कम होगी, संघर्ष कम होगा, लूट-खसोट कम होगी और प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व की सीमा में जीने का प्रयत्न करेगा। निर्वाण का अर्थ है अपने अस्तित्व की सीमा में जीना। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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