Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 160
________________ १५८ / जैन दर्शन और अनेकान्त प्रामाणिकता और इच्छा-परिमाण . नैतिकता का दूसरा सूत्र बनता है-प्रामाणिकता। यह नैतिकता का मूल स्वरूप है। ईमानदार होना समाज की पवित्रता के लिए प्राथमिक अपेक्षा है। जब तक इच्छा परिमाण नहीं होगा तब तक प्रामाणिकता फलित नहीं होगी। इच्छा संयम के बिना प्रामाणिकता का विकास संभव नहीं है। आज यही समस्या है-एक ओर इच्छा के विस्तार की बात कही जाती है, दूसरी ओर ईमानदार रहने की बात कही जाती है। जब तक इच्छा असीम है, तब तक नैतिक और प्रामाणिक बनना संभव नहीं है। जैन श्रावक के जीवन का पहला दृष्टिकोण प्रामाणिकता नहीं हो सकता । इसका पहला दृष्टिकोण होगा-इच्छा-परिमाण । इच्छा के आधार पर तीन प्रकार के वर्गीकरण बनते हैं-महेच्छा, अल्पेच्छा और अनिच्छा । कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें महान् इच्छा होती है। कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी इच्छा सीमित है और कुछ लोग ऐसे हैं जिनमें इच्छा है ही नहीं ! पहला वर्ग उन लोगों का है, जिनमें इच्छा का कोई संयम नहीं है। दूसरा वर्ग जैन श्रावक का है, जिनमें इच्छा का परिमाण होता है। तीसरा वर्ग मुनि का है जिसमें इच्छा का बिल्कुल संयम होता है। जहां महेच्छा है, वहां महान परिग्रह होगा। जहां अल्पेच्छा है वहां अल्प परिग्रह होगा और जहां अनिच्छा. है वहां अपरिग्रह है। इच्छा और परिग्रह-दोनों का संयम जुड़ा हुआ है। हम चाहते हैं—प्रामाणिकता आए, अर्थार्जन के साधन शुद्ध बनें। साधनशुद्धि और करुणा नैतिकता का तीसरा आधार है साधन-शुद्धि । यदि इच्छा परिमाण है, प्रामाणिकता की चेतना विकसित है तो अर्थार्जन के साधनों की शुद्धता का प्रश्न प्रस्तुत होगा। जब तक प्रामाणिकता नहीं है, येन-केन-प्रकारेण धन जुटाने के साधनों का ही विकास होगा, । नैतिकता का चौथा आधार है-मानवीय संबंधों में सुधार । उद्योग के क्षेत्र में देखें, व्यापार, प्रशासन और परिवार के क्षेत्र में देखें, प्रत्येक क्षेत्र में मानवीय संबंधों की समस्या बहुत जटिल है। एक मिल-मालिक, मजदूर से अधिक से अधिक काम लेना चाहता है पर-कम-से कम वेतन देना चाहता है। मजदूर अधिकाधिक वेतन लेना चाहता है और कम-से-कम काम करना चाहता है। उद्योग जगत में यह बहुत बड़ी समस्या है। इसी समस्या के कारण हड़ताल, घेराबंदी, तालाबंदी आदि-आदि होते रहते हैं। मानवीय संबंधों में सुधार का कारण है करुणा का विकास । जैन Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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