Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ नैतिकता की धारणा / १५७ कार्य से मनुष्य को आनन्द नहीं मिलता उस कार्य के प्रति आकर्षण पैदा नहीं होता यह प्राणी की नैसर्गिक प्रकृति है । वह सुख और आनन्द चाहता है । नैतिकता का मुख्य बिन्दु है – आनन्द | नैतिकता का मानदण्ड : संयम I 1 नैतिकता का आधार, नैतिकता की परिभाषा और नैतिकता का मानदण्ड-ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं । नैतिकता के मानदण्ड बदलते रहते हैं । एक समय में एक कार्य को नैतिक माना जाता है और किसी समय उसी कार्य को अनैतिक मान लिया जाता है। किसी देश में एक कार्य को नैतिक माना जाता है, दूसरे देश में उसे अनैतिक मान लिया जाता है। देश और काल के साथ-साथ नैतिकता के मानदंड बदलते रहे हैं । जैनदर्शन के आधार पर नैतिकता का मानदण्ड है संयम । जहां-जहां संयम है, वहां-वहां नैतिकता है। जहां संयम नहीं है वहां नैतिकता नहीं हो सकती । संयम आत्माभिमुखी भी है, समाजाभिमुखी भी है। अपनी इन्द्रियों पर संयम करना आत्माभिमुखी कार्य भी है, वह नैतिक कार्य भी हो सकता है । अणुव्रत आन्दोलन नैतिक आन्दोलन है, इसीलिए उसका मूल सूत्र है 'संयमः खलु जीवनम्' - संयम ही जीवन है । इसका अर्थ है— नैतिक कार्य वही है जहां संयम है। जिस कार्य के साथ संयम नहीं है, उस कार्य को कभी नैतिक नहीं कहा जा सकता । नैतिकता का पहला सूत्र नैतिकता के अनुभव के पश्चात् जीवन की शैली बदलती है। जैन धर्म को मानने वाला, ज्ञान और आचार — उभयात्मक धर्म को स्वीकार करने वाला, आचार को आत्माभिमुख और समाजाभिमुख मानने वाला व्यक्ति वैसा जीवन नहीं जी सकता जैसा एक मिथ्या दृष्टिकोण वाला व्यक्ति जीता है । उसकी जीवन-शैली बदल जाती है। एक जैन श्रावक की जीवन-शैली बिल्कुल भिन्न होगी। उसकी जीवन-शैली का पहला सूत्र होगा—इच्छा परिमाण । इच्छा एक जटिल समस्या है। इच्छा बढ़ाएं या कम करें । उलझन में रहा है यह प्रश्न । सामाजिक एवं अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कहेगा — इच्छा बढ़ाओ, इच्छा बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, विकास को गति मिलेगी । किन्तु धार्मिक दृष्टिकोण से इच्छा को बढ़ाना अच्छा नहीं है क्योंकि इच्छा अनन्त होती है । उसका कहीं अन्त नहीं होता । नैतिकता का पहला सूत्र बना — इच्छा 1 परिमाण, इच्छा का संयम करना । आहार, धन आदि जितनी भी इच्छाएं हैं, उनका परिमाण करो, संयम करो, उसे अपरिमित मत बनाओ । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164