Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 161
________________ नैतिकता की धारणा / १५९ श्रावक वही बन सकता है, जिसमें क्रूरता कम हो। करुणा का दूसरा रूप मानवीय संबंधों के बिगड़ने का क्रूरता से गठबंधन है। मानवीय संबंधों में सुधार वहीं संभव है जहां क्रूरता को प्रश्रय नहीं है। जिसमें क्रूरता नहीं है वह अप्रामाणिक नहीं बन पाएगा, येन-केन-प्रकारेण धन का अर्जन नहीं कर पाएगा, वह दूसरे का भी ध्यान रखेगा। वह सोचेगा—मेरे द्वारा ऐसा तो कोई कार्य नहीं हो रहा है, जिससे दूसरे का गला कटे या किसी का शोषण हो। यह विचार वही करेगा जिसमें करुणा का विकास है । जिसमें करुणा नहीं है, वह कभी ऐसा नहीं सोच पाता। उसका चिन्तन होता है-पशु मरे तो मरे, आदमी मरे तो मरे, किसी का घर उजड़े पर मेरा घर बनना चाहिए, मेरे पास धन आना चाहिए। क्रूरता जीवन की शैली को बिल्कुल बदल डालती है। - करुणा का दूसरा रूप है-मैत्री । यदि व्यक्ति में मैत्री की भावना का, सबके प्रति मंगल भावना का, विकास हो जाए तो करुणा का विकास हो सकता है, क्रूरता में कमी आ सकती है। प्रसिद्ध श्लोक है सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कचिद् दुखभाग् भवेत्। कोई भी व्यक्ति दुःखी न बने, सब सुखी और निरामय बनें। सबका कल्याण हो। इस पद्य का उच्चारण तो बहुत होता है पर क्रियान्विति नहीं होती । जहां सर्वे भवन्तु सुखिन: का सूत्र है वहां सूत्र होगा—अहं भवामि सुखिनः । मैं निरामय बनूं, मुझे कल्याण प्राप्त हो । कोई सुखी बने या न बने । व्यक्ति का चिन्तन मैं और मेरा-इन दो सूत्रों से जुड़ा हुआ रहता है । यह स्वार्थ की चेतना, क्रूरता का प्रतिफल है।। प्रश्न धन के उपयोग का नैतिकता का एक आधार है-भोगोपभोग का संयम। धन का अर्जन करने वाले व्यक्ति के सामने प्रश्न होगा—इसका उपयोग कैसे हो? धन के उपयोग के दो तरीके हैं। पहला है—अपनी संपत्ति के व्यक्तिगत भोग में अधिक से अधिक व्यय करना । दूसरा है—सम्पत्ति भोग का व्यक्तिगत भोग में कम प्रयोग करना, सामाजिक उपयोग में सम्पत्ति का अधिक व्यय करना । जैन श्रावक को निर्देश दिया गया-चाहे उसके पास प्रचुर सम्पत्ति है पर उसका अपना व्यक्तिगत जीवन बहुत संयमित हो। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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