Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 147
________________ पुनर्जन्मवाद | १४५ आत्माएं अनंत हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। किन्तु आत्मा के निकाय नहीं बनते । आत्मा अनंत हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है किन्तु आत्मा के निकाय नहीं बनते । आत्मा अनिकाय होती, केवल मुक्त आत्मा ही होती, उच्च भूमिका में प्रतिष्ठित आत्मा ही होती । यदि राग-द्वेष का बीज नहीं होता तो इन्द्रियों के आधार पर जीवों के पांच वर्ग कभी नहीं बनते। इन्द्रियां होती ही नहीं। राग-द्वेष नहीं होता तो शरीर नहीं होता और शरीर नहीं होता तो इन्द्रियां नहीं होती, मन नहीं होता, कोई प्रपंच या विस्तार नहीं होता । इस भाषा में वेदान्त की भाषा को ठीक समझा जा सकता है-एक आत्मा है और यह सारा जगत उसका प्रपंच है । जैनदर्शन की भाषा होगी-केवल आत्माएं हैं, अनंत आत्माएं हैं किन्तु उन आत्माओं का सारा प्रपंच राग-द्वेष के कारण हुआ है। धर्म की परिभाषा मूल बीज है राग और द्वेष । आत्मा के भीतर गहराई में जाकर राग-द्वेष के बीज को खोजना या प्रपंच बढ़ाने वाले तत्त्वों को खोजना अध्यात्मवाद है। सरल भाषा में कहें तो राग और द्वेष—इन दो में रहना और जीना अनध्यात्मवाद, भौतिकवाद या पौद्गलिकवाद है तथा राग-द्वेष मुक्त क्षणों में रहना और जीना अध्यात्मवाद है। प्रेक्षाध्यान की साधना प्रिय और अप्रिय संवेदन से मुक्त जीवन जीने का अभ्यास है। केवल आंख मूंदकर बैठ जाना, शरीर को स्थिर बना लेना ही प्रेक्षाध्यान नहीं है। प्रेक्षाध्यान का अर्थ है-राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीने का अभ्यास। यही धर्म के विकास का पहला बिन्दु है । राग-द्वेष सारे गति-चक्र को विस्तार देता है, आत्मा के स्वरूप को आवृत करता है। यदि आत्मा के अनावृत स्वरूप को पाना है तो उसके लिए राग-द्वेष को क्षीण करना आवश्यक है । यह धर्म का उद्गम स्थल है। यहां से धर्म का स्रोत बहता है, धर्म की नदी प्रस्फुटित होती है। धर्म का स्वरूप है राग-द्वेष को क्षीण करना। धर्म की सीधी सरल परिभाषा की जा सकती है—जहां-जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है, वहां-वहां अधर्म है और जहां-जहां राग-द्वेष की निवृत्ति है, वहां-वहां धर्म है। ध्यान, धर्म का ही एक अंग है, वह उससे भिन्न नहीं है । ध्यान की परिभाषा भी यही होगी-राग-द्वेष-मुक्त क्षण ध्यान का क्षण है, राग-द्वेष-युक्त क्षण अध्यान का क्षण है। धर्म की आध्यात्मिक धारणा हम विस्तार से चलते-चलते बीज तक पहुंच जाएं । बीज को नष्ट करना बहुत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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