Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 145
________________ पुनर्जन्मवाद / १४३ की सूचना देने वाला वर्गीकरण है। पांच इन्द्रियों का प्रस्तुत क्रम जैनदर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। किसी भी दर्शन में पांच इन्द्रियों का यह क्रम स्वीकृत नहीं है। सांख्यदर्शन में पांच इन्द्रियों को स्वीकार किया गया। अन्य दर्शनों में भी पांच इन्द्रियों को स्वीकृत किया गया। किन्तु इन्द्रियों का यह क्रम-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत—किसी भी दर्शन में स्वीकृत नहीं है। सांख्यदर्शन में पहली इन्द्रिय है-नेत्र । आंख जीव का पहला विकास नहीं है। प्राणी का पहला विकास है स्पर्शन। इस दृष्टि से कहा जा सकता है-इन्द्रियों का प्रस्तुत क्रम जैन दर्शन की अपनी सूझ-बूझ से उपजा हुआ है। साधना का उद्देश्य ___ जीवनिकायवाद और पुनर्जन्मवाद-इन दोनों के आधार पर साधना के अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं। प्रश्न होता है—साधना क्यों की जाए? उद्देश्य क्या है? साधना का उद्देश्य है-जन्म-मरण के चक्रव्यूह को तोड़ना, विकास की उच्चतम भूमिका पर पहुंच जाना। विकास की उच्चतम भूमिका है- मन से परे का ज्ञान । मन की भूमिका तक का ज्ञान विकास की सामान्य भूमिका है किन्तु विकास की उच्च भूमिका है अंतीन्द्रिय चेतना का विकास, जहां मन समाप्त हो जाता है, मन की आवश्यकता नहीं रहती । अमनस्क अवस्था की भूमिका तक पहुंच जाना विकास का मुख्य बिन्दु है। यह विकास तब संभव है जब जन्म और मरण के चक्र-व्यूह को तोड़ दिया जाए। ____ मुझे जन्म न लेना पड़े, इस धारणा के आधार पर अनेक लोगों ने साधना की दिशा में प्रस्थान किया है। आगम साहित्य में ऐसी अनेक घटनाएं उपलब्ध हैं । एक विरक्त आत्मा ने वैराग्य के स्वर में कहा—'मुझे बार-बार जन्म और मरण न करना पड़े इसलिए मैं मुनि बनना चाहता हूं।' इसीलिए जन्म और मरण को दुःख माना गया है । जैनदर्शन में दुःखवाद स्वीकृत है । बौद्ध दर्शन भी दुःखवादी है। दुःखवाद के चार मुख्य अंग बतलाए गए—जन्म, मरण, बुढ़ापा और रोग। दुःखवाद के ये चार अंग हैं। पर व्यवहार की दृष्टि से देखें तो जन्म लेना दुःख प्रतीत नहीं होता। प्रश्न हो सकता है-जन्म-मरण को दुःख क्यों माना गया? जन्म और मरण को उच्चतम विकास की दृष्टि से ही दुःख माना गया है। जब तक यह जन्म-मरण का चक्र है तब तक आत्मा का उच्च विकास नहीं हो सकता। ये आत्मा के उच्च विकास में बाधक हैं । बाधा देने वाला दुःख करने वाला होता है । बाधक तत्व दुःखद होता है। जन्म और मरण—ये विकास में बाधक है इसलिए दुःख हैं। इस दुःखवाद के Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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