Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 141
________________ पुनर्जन्मवाद आत्माएं अनन्त हैं और जीव अनन्त हैं । यह जैनदर्शन का एक मुख्य सिद्धान्त है। आत्मा और जीव में भेद नहीं है। जैनदर्शन में संसारी आत्मा को आत्मा कहा और मुक्त आत्मा को जीव कहा गया है। आत्मा और जीव—दोनों सापेक्ष शब्द हैं। इनमें भेद किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता । रूपान्तरण का सिद्धान्त गया अनन्त जीववाद और अनन्त आत्मावाद जैनदर्शन को मान्य है । एकात्मवाद के सामने प्रश्न प्रस्तुत हुआ - आत्मा एक है तो पुनर्जन्म किसका होगा ? भवान्तर किसका होगा ? जन्म-मरण का चक्र कैसे चलेगा? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया—वास्तव में आत्मा एक है किन्तु व्यवस्था की दृष्टि से वह अनेक हैं। जैनदर्शन में व्यवस्था की दृष्टि से नानात्व का प्रपंच नहीं है । वह अनेकात्मवादी है । उसके अनुसार प्रत्येक आत्मा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है । उसका भव- भ्रमण होता है, पुनर्जन्म होता है । अनेक- आत्मवाद के आधार पर पुनर्जन्म की बात बहुत संगत बैठती है । सब आत्माएं जैसे हैं वैसे नहीं रहतीं किन्तु उनका रूपान्तरण होता रहता है। यह रूपान्तरण का सिद्धान्त पुनर्जन्म के रूप में व्याख्यात हुआ है । एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता रहता है। जन्म के बाद मरण और मरण के बाद पुन: जन्म - इस प्रकार यह जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है । चतुर्गतिवाद पुनर्जन्म के लिए कुछ सिद्धान्तों की व्याख्या आवश्यक है । पहली बात है— स्थूल शरीर का त्याग और सूक्ष्म शरीर का निरन्तर विद्यमान होना । मरने के समय स्थूल शरीर छूट जाता है पर सूक्ष्म शरीर कभी नहीं छूटता । संसारी अवस्था में सूक्ष्म शरीर निरन्तर विद्यमान रहता है । वह सूक्ष्म शरीर ही अन्तराल गति करता है, मरने के बाद गति करता है और दूसरी गति में जाता है । वह वहां जाकर फिर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करता है । यह अन्तराल गति की प्रक्रिया, नये शरीर के निर्माण की प्रक्रिया, पुनर्जन्म के साथ जुड़ी हुई प्रक्रिया है। इसके साथ जुड़ा हुआ है चतुर्गति का सिद्धान्त । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164