Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 126
________________ १२४ / जैन दर्शन और अनेकान्त में दृष्टिकोण का सम्यक् होना आवश्यक है। प्रत्येक घटना और वस्तु के बारे में भी व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए, एकांगी नहीं होना चाहिए। एकांगीवाद और मिथ्या एकांतवाद से बचने के लिए नियमवाद का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी घटनाओं के साथ व्याख्या करें, जीवन-संदर्भ के साथ व्याख्या करें तो नियमवाद का एक उदात्त पक्ष उजागर हो सकता है। संदर्भ : जन्म और मृत्यु का ____ जीवन का पहला संदर्भ है-जन्म और मरण । मनुष्य जन्म लेता है और मरता है, यह एक चक्र है। यह क्यों होता है ? इसका नियम क्या है ? आदमी क्यों जन्म लेता है और क्यों मरता है? एक मिथ्या धारणा बन गई—मनुष्य अमुक उद्देश्य को पूरा करने के लिए जन्म लेता है। यह धारणा सही नहीं है। जन्म का उद्देश्य किसने बनाया? कौन है उद्देश्य बनाने वाला? उद्देश्य जन्म का घटक नहीं है। जन्म लेना एक नियति है, अनिवार्यता है। जब तक आत्मा कर्मबद्ध है, तब तक व्यक्ति जिएगा, मरेगा। इसका एक नियम है नियति और दूसरा नियम है काल । एक काल के बाद प्रत्येक वस्तु को बदलना होता है, वह उसी रूप में रह नहीं सकती। काल-मर्यादा भी इसका एक नियम है। नियामक एक ही नहीं है तीसरा नियम है-कर्म । आयुष्य कर्म के परमाणुओं को भोगना है। जितने समय तक आयुष्य कर्म के परमाणुओं को भोगना है उतने समय तक जीना है। आयुष्य कर्म के परमाणु पूरे हुए, भोग लिये गए, मृत्यु हो जाएगी। एक नियम है-स्वभाव । वह भी अपना काम करता है । द्रव्य का स्वभाव है कि वह परिवर्तित होता रहता है । द्रव्य में धौव्यांश है तो साथ-साथ में परिवर्तनांश भी है, अधौव्यांश भी है। द्रव्य में परिणमन होता है, पर्याय बदलता है । एक पर्याय है जन्म और दूसरा पर्याय है मरण । यह पर्याय का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार अनेक नियम मिलकर जन्म और मरण की व्यवस्था का सम्पादन कर रहे हैं । इस भाषा में भी कहा जा सकता है—अनेक नियमों के प्रयोग से जन्म और मरण की व्यवस्था संपादित हो रही है। संदर्भ रोग का __ जीवन का दूसरा संदर्भ है-रोग । जन्म के बाद एक बड़ी स्थिति आती है रोग की। रोग क्यों होता है ? अनेक लोग सोचते हैं-असातवेदनीय कर्म का उदय है Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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