Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 127
________________ नियमवाद । १२५ इसलिए यह रोग हो गया, किन्तु यदि इसकी समीक्षा करें तो यह बात समीचीन नहीं ठहरती । केवल असातवेदनीय कर्म ही रोग का कारण नहीं बनता । रोग के अनेक कारण हैं और अनेक नियम हैं। एक नियम है-क्षेत्र । क्षेत्र संबंधी रोग होता है। एक व्यक्ति अमक गांव में गया और बीमार हो गया। वहां से बाहर जाते ही वह बिना दवा के ठीक हो जाएगा। एक नियम है—काल । कालजनित रोग पैदा होते हैं। सर्दी के मौसम में एक प्रकार के रोग पैदा होते हैं और गर्मी के मौसम में दूसरे प्रकार के रोग पैदा होते हैं। लू का प्रकोप गर्मी के मौसम में होगा, सर्दी के मौसम में नहीं होगा। शीतजनित बीमारियां सर्दी में होंगी, गर्मी में नहीं होंगीं। प्रात:काल एक रोग उपशांत होगा और रात्रि में, मध्य रात्रि में वह रोग भंयकर बन जाएगा। एक नियम है-अवस्था। अवस्था-जनित रोग होता है। अमुक अवस्था में एक प्रकार की बीमारी होगी, पहले वह नहीं होगी। एक नियम है-भाव । अमुक भाव में बीमारी होगी। क्रोध का भाव तीव्र हो गया तो अमुक बीमारी पैदा हो जाएगी। आजकल इस पर बहुत काम हुआ है विज्ञान के क्षेत्र में । किस प्रकार का मनोभाव किस प्रकार की बीमारी को जन्म देता है-इस विषय में बहुत खोज हो रही है। भाव भी इसका एक कारण है, नियम है। कर्म एक नियम है ___आयुर्वेद में एक प्रकार का रोग माना गया—कर्मज रोग, जो कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म एक नियम है। कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जिन्हें कर्मज कहा जा सकता है, असातवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला रोग कहा जा सकता है। किन्तु सब रोगों को कर्मज माना जाए, सब बीमारियों को कर्मज माना जाए, यह समीचीन नहीं . लगता । रोग आने पर असातवेदनीय का उदय हो जाता है। अप्रिय कर्म का योग होता है, दुःख का संवेदन होता है, यह ठीक बात है। किन्तु सब रोग असातवेदनीय के उदय से होते हैं—यह विमर्शनीय है। ऐसा नहीं होना चाहिए । दुःख का निमित्त होना एक बात है और असातवेदनीय के उदय से पैदा होना बिल्कुल दूसरी बात है। कर्म सर्वत्र नियामक नहीं एक आदमी चल रहा था। ठोकर लगी और पैर में दर्द हो गया। असातवेदनीय के उदय से यह बीमारी आई, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु ठोकर लगी, दर्द हुआ और असातवेदनीय कर्म का उदय हो गया, यह कहा जा सकता है। रोग का एक नियम हो सकता है-कर्म, किन्तु उसे सर्वत्र नियामक नहीं माना जा सकता। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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