Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 116
________________ ११४ / जैन दर्शन और अनेकान्त दृष्टि से महसूस नहीं हुई । प्रयोजनवादी दृष्टि एक संदर्भ है प्रयोजन का । प्रयोजनवादी दृष्टि से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं — ईश्वर ने सष्टि का निर्माण क्यों किया ? वह क्यों जगत् के प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी व्यवस्था और नियमन करता है ? वह अच्छा करने वाले को अच्छा फल देता है और बुरा करने वाले को बुरा फल देता है । वह ऐसा क्यों करता है ? उसका प्रयोजन क्या है ? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने । प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो उसका संतोषजनक समाधान नहीं मिलता । यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा— यह प्रयोजन कब पैदा हुआ ? यदि कहा जाए – जिस दिन ईश्वर जन्म उसी दिन प्रयोजन पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा — ईश्वर और जगत् का जन्म एक साथ हुआ । यदि ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा - प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ, पहले क्यों नहीं हुआ ? उसका प्रयोजन आखिर क्या था ? उत्तर दिया गया - करुणा थी प्रयोजन । ईश्वर के मन में करुणा जागी और उसने सृष्टि का निर्माण कर दिया । एकोऽहं बहुस्याम् यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नहीं है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहां करुणावादी दृष्टिकोण सफल नहीं होता । करुणा की बात समझ में नहीं आती। दूसरे भी जितने प्रयोजन हैं उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सारे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर जैनदर्शन ने ईश्वरवाद के अस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है— ईश्वर को अकेला रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा- 'एकोऽहं बहुस्याम् ' मैं बहुत हो जाऊं । इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है उससे यह बात भी संगत नहीं लगती । ईश्वरवाद : धार्मिक दृष्टिकोण हमारे सामने तीन दृष्टिकोण हैं— धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दार्शनिक दृष्टिकोण | इन तीनों बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक् नहीं उतरती । जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर सकता है और न परिवर्तन कर सकता है। जैसा है वैसा ही रहे । ये दोनों जब मनुष्य के हाथ में नहीं हैं तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का अस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन गया । इस धारणा I Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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