Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 117
________________ ईश्वरवादः कर्मवाद । ११५ रूढ़िवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को अकिंचित्कर बना दिया। ईश्वरवाद : नैतिक दृष्टिकोण नैतिक दृष्टि से विचार करें यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। वही व्यक्ति कृत के प्रति उत्तरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उत्तरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा उसने कर लिया तो वह अच्छे और बुरे का उत्तरदायी क्यों बनेगा? ईश्वर ने अच्छा कराया तो अच्छा कर लिया और बुरा कराया तो बुरा कर लिया। उत्तरदायी कराने वाला है या करने वाला है ? ____ एक यंत्र उत्तरदायी नहीं हो सकता । एक लौह-मानव थोड़ी दूर चलता है और फिर गोली दागता है। प्रश्न प्रस्तुत होता है-उसका उत्तरदायी कौन है ? क्या वह लौह-मानव है, यंत्र मानव है, रोबोट है ? बिल्कुल नहीं। उत्तरदायी है चलाने वाला। मनुष्य जिस प्रकार चलाता है, यंत्र-मानव उसी प्रकार चलता है। यदि मनुष्य वैसा ही यन्त्र-मानव या लौह-मानव है तो वह अपने कृत का उत्तरदायी नहीं हो सकता । नैतिक दृष्टि से यह एक बड़ी समस्या पैदा हो जाती है, नैतिकता की बात एक प्रकार से समाप्त हो जाती है। कर्मवाद के तीन सिद्धान्त जैनदर्शन ने इस पर समग्रता से विचार किया। उसने पहला सूत्र दिया कर्मवाद का। हर आत्मा की स्वतंत्रता कर्मवाद का पहला आधार है। यदि व्यक्ति का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। संकल्प करने में वह स्वतंत्र है इसलिए कृत के प्रति उत्तरदायी है । वह अच्छा करता है तो उसका फल अच्छा होता है और बुरा करता है तो बुरा होता है। अच्छे और बुरे का जिम्मेवार वह स्वयं है। यह संकल्प की स्वतन्त्रता कर्मवाद का पहला सिद्धान्त है। — कर्मवाद का दूसरा सिद्धान्त है—कृत का नैतिक जिम्मेवार व्यक्ति स्वयं है। वह अपने कृत के प्रति नैतिक दायित्व से अलग नहीं हो सकता। कोई भी काम करता है तो उसे यह उत्तरदायित्व लेना होगा कि इसके लिए मैं स्वयं जिम्मेवार हूं। कर्मवाद का तीसरा सिद्धान्त है-व्यक्ति को प्रगति और परिवर्तन का अधिकार है। छोटे-से-छोटे प्राणी को भी ये दोनों अधिकार उपलब्ध हैं। एक एकेन्द्रिय प्राणी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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