Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 123
________________ ईश्वरवाद : कर्मवाद | १२१ कर्म परमाणुओं की अलग वर्गणा है । कर्म के लिए सभी प्रकार के पुद्गल काम में नहीं आ सकते । शायद यह कर्म वर्गणा का प्रतिपादन किसी भी चिन्तन या दर्शन में नहीं आता। कर्म परमाणु चतुःस्पर्शी होंगे, सूक्ष्म होंगे। कर्म प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म बन सकता है, हर कोई पुद्गल कर्म नहीं बन सकता। कर्मबंध की प्रक्रिया कर्म के परमाणु अपने आप व्यक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं करते । जीव अपनी प्रवृत्ति के द्वारा कर्म परमाणु स्कंधों को आकर्षित करता है, अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सम्बन्ध बहुत गहरा हो जाता है । आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर, असंख्य प्रदेश पर, अनंत कर्म परमाणु स्कंध जुड़ जाते हैं। पहले वे जुड़ते हैं फिर उनकी प्रकृति का निर्माण होता है। ___ कर्म के जुड़ने को कहा जाता है—प्रदेशबन्ध । स्वभाव के निर्माण को कहा जाता है—प्रकृतिबन्ध । उसके बाद स्थिति का निर्धारण होता है। कौन कर्म कितने समय तक रहेगा और कब अपना विपाक देगा, यह है-स्थितिबन्ध । कर्म किस प्रकार का विपाक देगा, इसका नाम है-अनुभावबन्ध । इन चार प्रकारों से जीव और कर्म के बीच में सम्बन्ध की स्थापना होती है। विचित्रता का कारण : कर्म जब तक जीव और कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध समझ में नहीं आता तब तक कर्म का सिद्धान्त समझ में नहीं आ सकता। सम्बन्ध की व्यवस्था क्या है ? सम्बन्ध कैसे होता है ? सम्बन्ध कब तक रहता है ? काल का निर्धारण, विपाक का निर्धारण, स्वभाव का निर्धारण और कर्म परमाणुओं की संख्या का निर्धारण ये चारों निर्धारण अपने आप सहज भाव से हो जाते हैं और ये कर्म जब विपाक में आते हैं तो विचित्रताएं पैदा होती हैं। मीमांसक, सांख्य, जैन और बौद्ध-ये चारों दर्शन कर्मवादी हैं। बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिधम्मकोश में कहा गया-कर्मजं लोकवैचित्र्यं ।' यह लोक की विचित्रता कर्म के द्वारा होती है। भगवती सूत्र में एक संवाद है-भगवान महावीर से गौतम ने पूछा-भंते ! यह विभक्ति कहां से हो रही है, यह विभाजन, भेद, अलगाव-कहां से हो रहा है? भगवान महावीर ने उत्तर दिया-गौतम ! ये सारी विभक्ति कर्म के द्वारा हो रही है, ये सारी भेद-रेखाएं कर्म के द्वारा खींची जा रही हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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