Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 119
________________ ईश्वरवादः कर्मवाद । ११७ शायद उसने जैनधर्म के मर्म को समझा नहीं है। कोई भी जैन यदि परिवर्तन से कतरता है, परिवर्तन को नहीं मानता है, तो शायद उसने जैनधर्म का मर्म नहीं समझा। कोई भी जैन अपने स्वभाव को न बदलने की दुहाई देता है तो उसने शायद जैनधर्म के मर्म को नहीं समझा। जैनधर्म निरन्तर परिवर्तन की, उपशमन की प्रक्रिया है । हमेशा बदला जा सकता है, प्रत्येक क्षण बदला जा सकता है । जो पर्याय आधा घंटा पहले था वह अभी बदल गया। जो अभी है वह दस मिनट के बाद बदल जाएगा। यह निरंतर परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसी आधार पर स्वतंत्रता का सिद्धान्त सार्थक बनता है। एकांगी धारणा जैनदर्शन ने कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया, किन्तु कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थान नहीं ले सकता। ईश्वरवादी कहते हैं—ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, एक पत्ता भी नहीं हिलता। यदि जैन दर्शन यह मान ले कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं होता तो ईश्वरवाद और कर्म के सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं रह पाता। कर्मवाद स्वयं ईश्वर के स्थान पर बैठ जाता है। जो कुछ होता है वह सब कर्म होता है। यह बिल्कुल एकांगी धारणा है। जैनदर्शन के अनुसार यह सही नहीं है, उचित नहीं है। कर्मवाद से सब कुछ नहीं होता । कर्म का स्थान सीमित है। एक सीमित स्थान में कर्म से कुछ होता है किन्तु सब कुछ नहीं होता। यदि सब-कुछ करने की क्षमता कर्म में आ जाए तो फिर ईश्वर और कर्म में कोई भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती। कर्म का कर्तृत्व नहीं है कर्म हमारी कृति है किन्तु कर्तृत्व उसका नहीं है । कर्तृत्व है आत्मा का। कृति का प्रभुत्व नहीं हो सकता। प्रभुत्व कर्तृत्व का हो सकता है। यदि व्यक्ति द्वारा किया हुआ कर्म सब कुछ बन जाए तो कर्ता गौण बन जाए। कर्ता का तो कोई अर्थ ही नहीं रहे । कर्तृत्व कहां है ?कर्म में कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व व्यक्ति के भीतर उसके संकल्प में है। यदि कृति और कर्ता का भेद स्पष्ट होता है तो कर्म को उतना ही मूल्य मिलेगा, जितना कि उसका मूल्य है। मिथ्या अवधारणाएं कर्म के विषय में सम्यक् धारणा जैनों में भी नहीं है। जैन लोग भी कर्मवाद को सम्यक् नहीं जानते । भगवान महावीर ने कर्म को बहुत लचीला माना है। कहा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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