Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 99
________________ आत्मवाद के विविध पहलू / ९७ जैनदर्शन ने आत्मा को सर्वथा शुद्ध नहीं माना। इसलिए आत्मा का बंध भी होता है और आत्मा का मोक्ष भी होता है । आत्मा करती है, बंधती है । अपना कर्तृत्व और अपना भोक्तृत्व — दोनों आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं 1 आत्मा के कर्तृत्व के साथ कर्मवाद के सिद्धांत का विकास हुआ। आत्मा के कर्तृत्व को जैनदर्शन में दो भागों में विभक्त किया गया — वैभाविक कर्तृत्व और स्वाभाविक कर्तृत्व, वैभाविक भोक्तृत्व और स्वाभाविक भोक्तृत्व । स्वाभाविक कर्तृत्व प्रत्येक दृव्य में निरन्तर परिणमन होता रहता है, परिवर्तन होता रहता है । आत्मा उस परिणमन की कर्त्ता है । आत्मा अपने स्वभाव को करती है, उसका कर्तृत्वभाव निरन्तर चलता रहता है । यदि एक क्षण भी उसका कर्तृत्वभाव बन्द हो जाए तो आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाए । उसे निरन्तर कुछ न कुछ करना होता है पारिभाषिक शब्दावली में इसे कहा गया— अर्थपर्याय, स्वाभाविक पर्याय, स्वाभाविक परिणमन । परिवर्तन का चक्का स्वभाव से निरन्तर घूमता रहता है, कभी बन्द नहीं होता | आत्मा में निरन्तर परिणमन होता रहता है, इसलिए उसका अस्तित्व टिका रहता है । परिणमन बन्द हो जाए तो उसका अस्तित्व भी बन्द हो जाए। एक क्षण में आत्मा का अस्तित्व है। यदि वह दूसरे क्षण के योग्य अपने अस्तित्व को न बना सके तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अपने अस्तित्व को टिकाए रखने के लिए प्रतिक्षण करना होता है और यही आत्मा का स्वाभाविक कर्तृत्व है । वैभाविक कर्तृत्व I एक आत्मा मनुष्य बन गई और एक आत्मा पशु बन गई । एक आत्मा तिर्यंच योनि में चली गई, एक नरक गति में चली गई, एक देव गति में चली गई । यह है, वैभाविक कर्तृत्व । व्यक्ति अपने कर्तृत्व से मनुष्य बना है, उसे कोई बनाने वाला नहीं है । अपने कर्तृत्व से ही वह पशु गति में चली जाती है । यह उसका वैभाविक कर्तृत्व है । उसने अपने साथ एक ऐसा जाल रच रखा है जिसके कारण उसका कर्तृत्व चलता है और उसे नाना गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । यह गतिवाद, नाना गतियों में परिभ्रमण का चक्र, आत्मा के कर्तृत्व के आधार पर चलता है । उसे दूसरा कोई करने वाला नहीं है । प्रश्न सुख-दुःख का इस कर्तृत्व के सिद्धांत के आधार पर साधना का एक बहुत बड़ा सूत्र प्रस्तुत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_03

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