Book Title: Jain Darshan aur Anekanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 104
________________ १०२ / जैन दर्शन और अनेकान्त चले जाते । कोई-कोई समानता के आधार पर ऐसा व्यवहार कर सकता है । यह एक आपवादिक स्वर हो सकता है किन्तु इसके आधार पर समाज में न तो एकत्व का प्रयोग हुआ और न समत्व का प्रयोग हुआ। व्यावहारिक दृष्टि से समाज में कोई परिवर्तन नहीं लगता। अनेक आत्मा मानने से या प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मानने से स्वार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। और एक आत्मा मानने से परमार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न दार्शनिक पहलू का है। उसके संदर्भ में कहा जा सकता है-एकात्मवाद की व्याख्या काफी जटिल है, व्यवहार के साथ उसकी संगति बिठाने में काफी . जटिलताएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है, अनेकात्मवाद का यह सिद्धान्त दार्शनिक प्रक्रिया की दृष्टि से सरल और स्पष्ट अनुभव देने वाला है। मैं कौन हूँ? आत्मा के बारे में इन सारे सिद्धांतों को जानने के बाद जो निष्कर्ष आएगा, जो एक प्रश्न उभरेगा, वह होगा-मैं कौन हं? जब तक आत्मा के इतने पहलओं को नहीं जान लिया जाता, तब तक 'मैं कौन हूं?' यह बात समझ में नहीं आती और इसका उत्तर भी नहीं दिया जा सकता। साधना का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है—'मैं कौन हूं?' साधना के इस प्रश्न को समाहित करने के लिए दर्शन के इतने सारे प्रश्नों को अपनाना जरूरी है और इन प्रश्नों को समझने के बाद ही व्यक्ति अपने आपको यह उत्तर दे सकता है-'मैं कौन हूं ?' Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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