Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh Author(s): Dharmanand Kaushambi Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 4
________________ ( २ ) नष्ट हो ही चुके हैं परन्तु साथ साथ दूसरों को भी नष्ट कर रहे हैं। इस न्याय से साधारण प्राणियों के हृदय में संदेह पैदा कर रहे हैं, . उनको वोर प्रभु सद्बुद्धि प्रदान करें। वे हठाग्रही प्राणी संयमी सद्गुरु से उन आगमों का रहस्य समझ कर अपना कल्याण कर लें। - यह बात प्रमाण सिद्ध है कि व्याकरण, काव्य, तर्क आदि विद्याओं के द्वारा शब्दार्थ करने की पूर्ण शक्ति संपादन कर लेने पर भी जब तक तत्-तत् धर्मों के निष्णात गीतार्थ गुरु के पास उन धार्मिक प्रथों के रहस्य को समझने का अधिकारी नहीं हो सकता। धार्मिक ग्रन्थों के रहस्य का ज्ञान तो दूर रहे, साधारण ग्रंथों का तथा व्यवहार में आने वाले साधारण वाक्यों का भी तत्व नहीं जान सकता। प्राचीन एक उदाहरण है; व्याकरण, कोष श्रादि षट् शास्त्र के ज्ञाता एक विद्वान थे उनकी नासिका के भीतरी भाग में एक फोड़ा हो गया, अनेक औषधोपचार करने पर भी पीड़ा दिनों दिन बढ़ती ही गयी। किसी भी वैद्य की दवा ने काम नहीं किया। उसी ग्राम में वृद्ध अनुभवी संस्कृत के साधारण ज्ञाता एक वैद्य रहते थे, लोगों के द्वारा उनकी प्रशंसा सुनकर रुग्ण पण्डितजी उनके पास पहुंचे और अपनी वेदना सुना कर रोगोपचार की जिज्ञासा व्यक्त की। वैद्यजी ने समझा कि पण्डितजी तो व्याकरण, काव्य, कोष आदि.संस्कृत विद्या के पारंगत व्यक्ति हैं, संस्कृत शब्दों में इनको दवा का उपदेश कर देना चाहिये । वैद्यजी ने उपदेश कर दिया कि “रोगेऽस्मिन् भूयोभूयो गणिकापुष्पमाघ्रातव्यमिति सुगमोपायः। वनस्पति के प्रकरण में गणिका नाम है जूहो का,उसके फूल को बारम्बार सूघने से नाक का रोग शांत हो जाता है। यह श्रासान उपाय है यह वैद्यजी का अभिप्राय था। रुग्ण पण्डितजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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