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जैन श्रावक गृहस्थ खेती करते हैं, और अन्नको पकाते हैं, इनमें तो सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा होती है और जैन साधु उनके घर से भिक्षा लेते ही है फिर मांस लेने में हरकत कौनसी है ? इत्यादि" इस दलोल ने तो कोशाम्बोजी का श्राखिरी पाण्डित्य प्रगट कर दिया इतनी अवस्था तक हिंसा अहिंसा शब्दों का अर्थ उनकी समझ में नहीं आया और जैन धर्म के ऊपर आक्षेप करने के लिये लेखनी उठाली यह कितना भारी दुस्साहस है ? पहले कोशाम्बीजी हिंसा का स्वरूप समझने के लिये इस श्लोक का अभ्यास करें यथा
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ।। अर्थात पांच इन्द्रिय, तीन बल अर्थात् मनोबल प्राण, और ववन बलप्राण, काय बलप्राण. तथा उच्छ्वास निःश्वास और श्रायु ये दश प्राण जैन शास्त्र में माने गये हैं, इन दश प्राणों से जीवको अलग करना हिसा कहलाती है वह हिंसा दो प्रकार की होती है । (१) मुख्य हिंसा और (२) गौणहिंसा । पंचेंद्रिय जीवों का घात करना मुख्य हिंसा है और एकन्द्रिय जीवों का घात करना गौण हिंसा जो मुख्य और गौण दोनों हिंसाओं से निवृत होता है वह सर्व विरत साधु-श्रमण कहलाता है। और जो मुख्य हिंसा से निवृत्त होकर गौण हिंसा में मर्यादा करता है उसे देशविरत श्रावक कहते हैं।
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं, इनमें चार बल प्राण होते हैं । (१) काय (२) स्पर्शेद्रिय (३) श्वासोच्छवास और (४) था आयुष्य, अतः एकेन्द्रिय जाव के घात से ४ बल प्राणों से आत्मा का वियोग होता है। द्वीन्द्रिय
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