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लाता हैं, और कच्चे पानी के एक बूद में असंख्याता जीव आर्य अनार्य सभी लोग एक मतसे स्वीकार कर चुके हैं। तो जब एक मनुष्य का घात करने से दूसरे को सजा होती है, फिर जो अनेक जीवों का रोज घात कर रहे हैं उसको सजा क्यों नहीं ? क्योंकि उसकी दृष्टि में सभी जीव-घात बराबर है।
जैन दृष्टि में तो खास पंचेन्द्रियों में भी सभी जीव बराबर नहीं हैं, राजा का न्याय भी ऐसा ही देखा जाता है कि यदि किसो ने बकरी या भैस को मार डाला तो रुपये का दण्ड दिया जाता है
और यदि मनुष्य को मारो तो शूली और फांसी की सजा दी जाती है । कोशांबीजो ने तो सभी को बराबरी के दर्जे में लाया है । यह उनकी कैसी विचित्र समझ है ?
इस लेख में जैन धर्म की प्ररूपणा, सुसंगति एवं गुरुपरम्परा से आये हुए शुद्ध अर्थ का दिग्दर्शन कराया गया है । इसका निष्पक्ष भाव से अनुशीलन करके वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझा जाय, यह वांछनीय है। आशा है, इससे अहिंसा के परम उपदेष्टा एवं परिपालक भगवान महावीर पर लगाये गये मांसाहार विषयक मिथ्या आक्षेप का निराकरण होगा और विद्वद्गण हंसवत् विशुद्ध अर्थ को स्वीकार करेंगे।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
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