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इसका नाम अमृता है । भाव प्रकाश पृष्ट १३५ श्लोक ६ देशप्रधान वनस्पति “ मागधी" को पिप्पली कहते हैं । यह मगध देश में बहुत पैदा होती है और सब देशों से यहां को पिप्पली श्रेष्ठ होती है, इसलिये इसका नाम दिया मागधी । पृष्ट १४० श्लोक ५२ भाव प्रकाश वर्ण प्रधान वनस्पति “ मण्डूकी" यह मेंढक के वर्ण के समान होती है इसलिये इसका नाम मण्डू की है।।
इसी तरह वर्ण सादृश्य लेकर कपोत से कूष्माण्ड, और कुक्कुट से बिजौरा आचार्य लोग कहते चले आते हैं-गुरुग्रंथि। ऐसे स्थलों पर सद्गुरु के सिवाय अर्थ प्राप्ति नहीं होती है यह बात आक्षेपी लोगों के ध्यान में रखने लायक है । सभी आचार्य अपने ग्रंथों में प्रायः ग्रंथि रखते ही हैं। देखिये-श्री हर्ष की उक्ति, नैषध के २२ वे सर्ग में:
ग्रंथे ग्रंथिरिह क्वचित्क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया, प्राज्ञ मन्यमनाहठेन पठिती मास्मिन् खलः खेसतु । श्रद्धाराध्यगुरुस्थली कृतदृढग्रंथिः समासादया, त्वेतत्काव्यरसोमिमजनसुखव्यासञ्जनं सजनः ॥३॥
अर्थात मैंने इस ग्रंथ में प्रयत्न पूर्वक कहीं कहीं पर ग्रंथि रख दी है, क्यों कि पंडितमानी खल लोग ऐसा न समझे कि मैंने हठेन अर्थात् अपनी ही बुद्धि बल से इस ग्रंथ का पठन कर लिया, गुरुओं की आवश्यकता नहीं ली । इसलिये सज्जन लोग श्रद्धापूर्वक अर्थात् गुरु में देवता बुद्धि रखकर उनकी आराधना करके उनकी कृपा व शुभाशीर्वाद से दृढग्रंथियों को शिथिल करने के बाद इस काव्य रस लहरी में अवगाहन से जो सुख होता है, उसको प्राप्त करें । सारांश यह है कि गुरु परम्परा के बिना एक भी पद का अर्थ बराबर समझ में नहीं आ सकता है, इसलिये गुरु परंपरा से
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