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( ११ ) है इस न्याय से जिन सूत्रों के आधार परसे कोशाम्बीजी ने जैन समाज में मांसाहार सिद्ध करने का प्रयत्न किया है उस विषय को लेता हूँ । कोशाम्बीजी ने पहले प्रमाण में श्री दशवकालिकसूत्र की ये गाथाएँ दी हैं
बहुअद्वियं पोग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । अस्थिअंतिंदुओं बिल्ल', उच्छुखंडं व सिंबलिं ॥ अप्पे सिया भोयण जाए, बहुउज्झिय धम्मिए। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥
अ० ५ उद्देश १ गा. ७३-७४ ' इन गाथाओं का कोशाम्बीजी ने अपनी मनोहारिणी ! बुद्धि द्वारा यह अर्थ लगाया है कि बहु अट्टियं अर्थात् बहुत हड्डी वाला 'पोग्गलं' अर्थात् मांस, तथा बहु कंटयं अर्थात् बहुत कांटे वाला 'अणिमिस' अथात् मछलो “अथिअं-अस्तिक वृक्ष का फल, "तिंदुअं-तिंदुक वृक्ष का फल, बिल्ल-बेलवृक्ष का फल, उच्छुखंडईख का टुकड़ा, व सिंबलिं-शाल्मला, इस किस्म के पदार्थ जिनमें खाने का भाग थोड़ा और फैकने का भाग ज्यादा है, ऐसे पदार्थ देने वाले को साधु प्रत्याख्यान कर दे कि मुझे यह नहीं कल्पता है।
इस गाथा में अस्थि शब्द से पशु पक्षियों की हड्डी, अनिमिस शब्द से मछली का अर्थ तो यहां हो ही नहीं सकता इसका विशद रूप से वर्णन हम आगे करेंगे । खैर, कुछ काल के लिये "तुष्यतु दुर्जनः" इस न्याय से मान भी लें, तो. भो कोशाम्बोजी अपने ही कुठार से अपने पैर में आघात कर रहे हैं, उनका ही तमाचा उनके सिर पर गिरता है, क्योंकि जब साधुजी साफ निषेध कर रहे है, कि मुझे ये चीजें नहीं कल्पती है, फिर इस गाथा से
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