Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Author(s): Dharmanand Kaushambi
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 20
________________ - ( १८ ) अभिहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि बहुअट्ठियं मंसं परिभाएत्ताणिहट्ट दलएञ्जा, तहप्पगारं पडिग्गहणं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे वि संते णो पडिगाहेजा । से पाहच पडिगाहिए सिया, तं णोहित्तिवएज्जा, अणोवत्तिवएजा । से तमायाय एगंतमवक्कमेजा । प्रवकमेत्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वो अप्पंडए जाव संताणए मंसगं भोच्चा अ अट्ठियाई कंटए गहाय से तमायाए एगंतमवकमेजा। प्रवक्कमेत्ता अहेमामथंडिलंसि वा अद्विरासिसि वा किट्ठरासिसि वा तुसरासिंसिवा गोमय रासिंसिवा अएणयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहि पमज्जिय पमज्जिय तो संजयामेव पमज्जिय पमज्जिय परिठवेज्जा। . इस सूत्र के पाठ में “बहुअट्टियं मंस और मच्छं वा बहु कंटयं ऐसे शब्द आये हैं, उस पर से बहुत हड्डी वाला मांस और बहुत कांटे वाली मछली ऐसा अर्थ कोशाम्बीजी ने किया है। सिर्फ कोशाम्बीजी ही नहीं बल्कि जितने उनके विचार के समकक्ष होंगे, और जैन धर्म के प्राचार विचार से अनभिज्ञ होंगे, उन सभी लोगों को यही अर्थ भासित होने वाला है। और निरामिष भोजी जैन समाज तथा उनके आचार विचार के समकक्ष प्राणियों को दूसरा ही अर्थ भासित होगा जो उनके आचार विचार से संगत और पवित्रता सूचक होगा। एक ही सूत्र के भिन्न भिन्न अर्थ भासित होते हैं। यह सिर्फ जैन सूत्रों में ही नहीं परन्तु इतर संप्रदायों में भी भिन्न २ विचार वाले व्यक्तियों की वजह से वाक्यों के भिन्न २ अर्थ पाये जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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