Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Author(s): Dharmanand Kaushambi
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 26
________________ वल्ली विकंशा, वीर वल्ल्यपि कथ्यते ॥ स्यान्मांस रोहिणी वृष्या, सरा दोषत्रयापहा ॥ १२५ श्लोक ॥ - तथा कट्वी तु कटुका तिक्ता, कृष्णभेदा कटुभरा ॥ अशोका मत्स्यशकला, चक्रांगी शकुलादनी ॥ १४१॥ मत्स्यपिता कांडसहा रोहिणी कटुरोहिणी ॥ कटवी तु कटुका पाके, तिक्ता रुक्षा हिमा लघुः॥ १४२ ॥ यहांपर यह भी विचार करना चाहिये कि जो शास्त्रकार सचित्त अथवा सदोष वनस्पतियों का भी ग्रहण करने की सख्त मनाई करते है और परिठाने योग्य वस्तुको परिठाने में भी एकेन्द्रिय जीव को पीड़ा न हो, इस प्रकार प्रमार्जन करके परिठाने को श्राज्ञा देते हैं, वे ही शास्त्रकार उसी स्थलपर पंचेन्द्रिय जीव के वध से होने वाले मांस और मछली खाने की आज्ञा दें, यह बात कहने को तो क्या ? बुद्धि ग्राह्य भी हो सके ऐसी संभावना नहीं दिखाई देती। और भी देखिये । यदि हमेशा मांस मछलियों को खाने का रिवाज होता, तो इसके पहले हा उसी जगह सूत्र २७४ में भगवान् फरमा रहे हैं कि जहां मांस और मछली बन रहा हो वहां पर साधुओं को जाना भी नहीं। ऐसा निषेध क्यों लिखते ? और भी देखिये कि यह सम्पूर्ण अध्ययन आहार और पानी के सम्बन्ध में पाया है, इस सूत्र के पूर्व में वनस्पति का अधिकार है। पर भाग में लवण (नमक) और बीच में कहो विधि वाक्य का निर्देश नहीं करते हुये अपवाद वाक्य का निर्देश कहां से आगया ? और भी देखिये कि मेरी धारणानुसार ३२ श्रागमों के अन्दर मांसमत्स्य सेवन के लिये विधिवाक्य तो एक भी नहीं मिलता है. परन्तु निषेध वाक्य स्थान २ पर मिल रहे हैं। फिर ऐसी अवस्था में मत्स्य-मांस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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