Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Author(s): Dharmanand Kaushambi
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 11
________________ (&) सन्दिग्ध और अध्रुव ये इस तरह बारह भेद मतिज्ञान के बतलाये गये हैं और मतिज्ञान तथा श्रुत ज्ञान का जाता है । अभेद सम्बन्ध माना भगवान् के उसी अर्थागमको गणधर लोग शब्दागम रूपमें गुम्फित कर लेते हैं, उसमें भी वहां चमत्कृति है अर्थात् जो जीव जितने अंश में ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षयोपशम करता है, उसको उसी प्रकार का अर्थ भासित होता है । आर्य बचन भी ऐसे हैं कि “ एगस्य सुत्तस्स अनंतो अत्थो " अर्थात एक एक सूत्र के अनन्त अर्थ हैं, जब अनन्त अर्थ इस आगम में पड़े हुए है तो चोर कहीं पर चोरी का अर्थ ग्रहण करे, जार कहीं पर जारी का अर्थ ग्रहण करें और मांसाहारी कहीं पर मांस अर्थ ग्रहण करे तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य की बात तो तब होगी जब कि ज्ञातपुत्र भगवान के सदाचारो संतानों में कुछ विषमता उपस्थित हों । भगवान के सन्तानों में भी शब्दार्थ के विषय में विषमता पैदा होने की संभावना अवश्य है । कारण कि सभी जीवों के क्षयोपशम बराबर नहीं है । अपनी २ बुद्धि, धारणा और गुरुपरम्परा के अनुसार सामान्य विशेष रूप से शब्दार्थ किये जाते हैं । जैसे हिंसा शब्द एक ही है, इसका अर्थ कोई करते हैं - प्राणित्रध; और कोई अर्थ करते हैं - पीडा । यदि पीडा अर्थ भी लिया जाय, तो भी आपाततः वध अर्थ चला ही आया । सारांश यह हुआ कि शब्दार्थ में किसी अंश में फर्क तो पड़ने ही वाला है, मूलतत्त्र में अंतर नहीं होना चाहिये । इतना नम्र निवेदन करके अपने प्रकृत वक्तव्य स्थल पर आता हूं । पं० धर्मानन्द कोशाम्बी नामक बौद्ध पंडितजी ने जो श्री 'दशवैकालिक सूत्र, श्री आचारांग सूत्र के किसी अंश को लेकर सुत्रार्थ के अभिप्राय को न समझ कर जैन समाज में मांसाहार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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