Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh
Author(s): Dharmanand Kaushambi
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 9
________________ ( ७ ) अन्तः सारविहीनस्य सहायः किं करिष्यति । मलयेऽपि स्थितो वेणु र्वेणुरेव न चंदनः ॥ १ ॥ अर्थात जिसका अंतःकरण सार शून्य है, उसके लिये कोई उपाय नहीं है, जैसे मलय नामक पर्वतपर नीम वगैरह सभी वृक्ष चंदनवत् सुगंध युक्त हो जाते हैं, परंतु वेणु ( बांस ) में सुगंध का असर नहीं होता। क्यों कि उसके अंदर कुछ सार नहीं है । इस तरह वेणुवत् निस्सार व्यक्तियों के साथ वाद विवाद से कुछ लाभ होने की संभावना नहीं है. (३) तीसरे दर्जे के व्यक्ति वे हैं जो बहुश्रुत हैं परंतु उनके पास विवेक नहीं है. उन लोगों के साथ भी वाद विवाद करना मानो अपने मूल्य समय का दुरुपयोग करना है। कहा भी है कि यस्य नास्ति विवेकस्तु केवलं तु बहुश्रुतः । न स जानाति शास्त्रार्थं दव पाकरसं यथा ॥ १ ॥ अर्थात जिस तरह कुछ सभी पदार्थों को चलाने फिराने का काम करती है परंतु किसी वस्तु के स्वादको नहीं जानती, उसी तरह कितनेक व्यक्ति खूब पढे लिखे हैं, दूसरों को पढ़ाते भी हैं, परंतु कुडछी के समान शास्त्र रहस्य से अनभिज्ञ ही हैं। ऐसे पुरुषों से वाद विवाद करने में कुछ लाभ नहीं है शायद आप लोग कहेंगे कि उन वादियों ने अपना लेख संसार भर में जाहिर कर दिया है, अगर हम लोग चुप रह जायेंगे तो हमारी महत्ता में हानि होगी, तो यह भी समझ ठीक नहीं है, एक कविने कहा है कि गिरिशिखरगतापि काकपंक्तिः पुलिनगतैर्न समत्वमेति हसैः ॥ • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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