Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh Author(s): Dharmanand Kaushambi Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 7
________________ अब्धिलंधित वीरवानर भटैः किन्त्वस्य गम्भीरता, __ मापातालनिमग्नपीवरतनुर्जानाति मन्थाचलः ॥१॥ सारांश-ग्रंथों को और शास्त्रों को अनेक लोग पढ़ते हैंउनका अर्थ भी कर लेते हैं, परन्तु उनका रहस्य वही जान सकता है जो गीतार्थ गुरु के पास रहकर तत्वार्थ जानने के लिये अतुल परिश्रम किया हुआ हो। जैसे लंका में जाते समय वानरों ने सेतु के द्वारा समुद्र का उल्लंघन कर डाला, परन्तु समुद्र कितना गहरा है, यह पता उनको कहां? समुद्र को गहराई का पता मन्थाचल पर्वत को है कि जिसका स्थूल शरीर पाताल तक चला गया है। परमार्थ इसका यह हुआ कि जैनागम शब्दों का रहस्य कितनेक स्थलों पर बड़े २ जैनाचार्यों को भी अवगत नहीं होता है । उस स्थल पर गुरु परंपरा से प्राप्त अर्थों को दिखला कर आगे "तत्वं तु केवलिगम्यं" अर्थात् तत्व यानी इसका रहस्य तो केवली (त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ) भगवान ही जानते हैं ऐसा कहकर छोड़ देते हैं। ऐसी अवस्था में जो व्यक्ति जैनागम रहस्यवेदी गीतार्थ, गुरुओं की सेवा पयुपासना के द्वारा आगमों का यथावत् अध्ययन नहीं करता है केवल प्रचलित शब्दार्थ लेकर जैनागम और जैन संस्कृति को दूषित करने का प्रयास करता है तो उससे बढ़कर दूसरा दुस्साहस कौन कहलायेगा? यदि किसी विवेकी विद्वान् पुरुष ने गुरु परम्परा से शास्त्रार्थ ग्रहण नहीं किया सिर्फ अपने बुद्धि बल से; उसको अर्थ करने की इच्छा रखता है तो वह बहुत सोच विचार के साथ अपना कदम आगे बढ़ता है, एकदम साहस नहीं करता । कहा हैःन पंडिताः साहसिका भवंति, श्रुत्वापि ते संतुलयंति तत्वम् । तत्वं समादाय समाचरन्ति, स्वार्थ प्रकुर्वन्ति परस्य चार्थम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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