Book Title: Jain Darshan Aur Mansahar Me Parsparik Virodh Author(s): Dharmanand Kaushambi Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 3
________________ जैन दर्शन और मांसाहार में पारस्परिक विरोध मंगलाचरण हठाग्रहग्रस्तान, दुर्बोधविषमूच्छितान् । सज्ज्ञानतन्त्रमन्त्राभ्याम् पान्तु वीरान्धिरेणवः || १॥ भावार्थ - जिस समय जीव कुग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं, उस समय विद्वानों की भो बुद्धि नष्ट हो जाती है, नहीं करने योग्य कामों के करने में प्रवृत्ति करने लगते हैं और नहीं बोलने योग्य बातों को बोलने लगते हैं, ये जीव सत्पुरुषों के लिए अनुकम्पनीय होते हैं। विषभक्षण करके मूच्छित प्राणियों को जिस तरह कुछ भान नहीं रहता है, उसी तरह दुर्बोध अर्थात् ज्ञानशून्य, अथवा दुर्बोध यानी गुरु परम्परा से समागत जो सज्ज्ञान उससे शून्य, अतएव दुर्बोधरूपी विषसे अज्ञान में पड़े हुए प्राणी भी सत्पुरुषां के लिए अनुकम्पनीय होते हैं इन दोनों प्रकार के प्राणियों की रक्षा सम्यग्ज्ञान रुपी तन्त्र और मन्त्र के प्रयोग से श्रीभगवान् महावीर प्रभु के चरणों की धूलियाँ करें । अर्थात् जिस तरह श्रीवीर प्रभु ने अनेक अज्ञानियों को सद्द्बोध देकर इस भवसागर से पार किया है; उसो तरह आज भी कितने हो जीव ऐसे हैं जो गुरु परम्परा से सद्बोध प्राप्त नहीं किये हुए हैं, अतएव दुर्बोध से आपके आगमों का यथायें अर्थ न समझकर "स्वयन्नष्टः परान्नाशयति अर्थात खुद तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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