Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ भूमिका कभी-भी अपनी ओटमें शृङ्गारिक प्रवृत्तियोंको प्रश्रय नहीं दिया । जगन्माताओंको सुहागरातों को मंगलाचरणके रूपमें प्रस्तुत करना नितान्त अमांगलिक है । एक ओर उन्हें माँ कहना और दूसरी ओर उनके अंग-प्रत्यंग में मादकताका रंग भरना उपयुक्त नहीं है । इससे माँका भाव विलुप्त होता है और सुन्दरी नवयौवना नायिकाका रूप उभरता है । घनाश्लेषमें आबद्ध दम्पति भले हो दिव्यलोक-वासी हों, पाठक या दर्शक में पवित्रता नहीं भर सकते । भगवान् पतिकी आरतीके लिए अंगूठों पर भगवती पत्नीका खड़ा होना ठीक है, किन्तु साथ ही पीनस्तनोंके कारण उसके हाथकी पूजा थालोके पुष्पोंका बिखर जाना कहाँ तक भक्ति परक है ? देव शंकर के साथ उमाकी भाँति, तीर्थंकर नेमीश्वर के साथ राजुलका नाम लिया जाता है। राजशेखरसूरिके' नेमिनाथफागु में राजुलका अनुपम सौन्दर्य अंकित हैं, किन्तु उसके चारों ओर एक ऐसे पवित्र वातावरणकी सीमा लिखी हुई है, जिससे विलासिताको सहलन प्राप्त नहीं हो पाती । उसके सौन्दर्य में जलन नहीं, शीतलता है । वह सुन्दरी है, किन्तु पावनताकी मूर्ति है । उसको देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिनपद्मसूरिके 'थूलिभद्दफागु' में कोशाके मादक सौन्दर्य और कामुक विलास चेष्टाओंका चित्र खींचा गया है। युवा मुनि स्थूलभद्रके संयमको डिगानेके लिए सुन्दरी कोशाने अपने विशाल भवन में अधिकाधिक प्रयास किया, किन्तु कृतकृत्य न हुई । कविको कोशाकी मादकता निरस्त करना अभीष्ट. था, अतः उसके रति-रूप और कामुक भावोंका अंकन ठीक ही हुआ । तपको दृढ़ता तभी है, जब वह बड़ेसे-बड़े सौन्दर्यके आगे भी दृढ़ बना रहे। कोशा जगन्माता नहीं, वेश्या थी । वेश्या भी ऐसी-वैसी नहीं, पाटलिपुत्रकी प्रसिद्ध वेश्या । यदि जिनपद्मसूरि उसके सौन्दर्यको उन्मुक्त भावसे मूर्तिमन्त न करते तो अस्वाभाविकता रह जाती। उससे एक मुनिका संयम मज़बूत प्रमाणित हुआ, यह मंगल हुआ । $1 जैन आचार्योंने भक्ति १२ भेद किये थे, किन्तु दोको अन्य में अन्तर्भुक्त कर १० की ही मान्यता चली आ रही थी । मैंने १२ पर लिखा है । सभीका विश्लेषण सभी दृष्टियोंसे पूर्ण हुआ है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह सच है कि साहित्य और सिद्धान्त के साथ-साथ इतिहास तथा पुरातत्त्वकी दृष्टिको भी प्रमुखता दी है। निर्गुण और सगुण ब्रह्मके रूपमें दो प्रकारको भक्तियोंसे सभी परिचित हैं, किन्तु निराकार आत्मा और वीतराग साकार भगवान्का स्वरूप एक माननेके कारण दोनोंमें जैसी एकता यहाँ सम्भव हो सकी है, अन्यत्र कहीं नहीं । अन्यत्र तो सगुण भक्तोंने निर्गुणका और निर्गुण उपासकोंने सगुणका खण्डन

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