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ही है, जिसकी उपलब्धि अनेक मार्गों से चलकर की जा सकती है। मन आदि धर्माचार्यो ने वर्णाश्रम की कल्पना की और यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक मनुष्य स्वधर्म का पालन करते हुए मोक्ष नामक चरम लक्ष्य ___ की ओर अग्रसर हो सकता है। गीता में कहा गया है-'स्वे-स्वे कर्मण्य
भिरत ससिद्धि लभते नर', अर्थात् अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप (निष्काम भाव से) कर्म करता हुमा मनुष्य परम सिद्धि यानी मोक्ष को प्राप्त करता है। गीता, मनु आदि का यह मन्तव्य प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्गों का समन्वय रूप था। ___ जैन तथा बौद्ध धर्मों ने वर्णाश्रम के सिद्धान्त को स्वीकार नही किया। इनमें वौद्ध धर्म मुख्यतः भिक्षुओ का निवृत्तिपरक धर्म बन गया। किन्तु जैनधर्म ने, हिन्दूधर्म की भांति, गृहस्थो के लिए भी मुक्ति का द्वार खुला रखा । प्रस्तुत पुस्तक में जैनधर्म-सम्मत श्रमण-धर्म के साथ-साथ श्रावको यानी गृहस्थो के धर्माचार का भी व्यवस्थित वर्णन है। इसके लेखक डा० मोहनलाल मेहता सामान्यतः भारतीय दर्शन के और विशेषत जैन दर्शन के अधिकारी विद्वान् है। अब तक ये जैन दर्शन, जैन मनोविज्ञान आदि विषयो पर अनेक प्रामाणिक कृतियोका प्रणयन कर चुके है । प्रस्तुत पुस्तक में इन्होने जैन दृष्टि से श्रावकधर्म तथा श्रमणधर्म का विस्तृत एव विशद विवेचन किया है । यो तो भारत के सभी धर्मों में विचारो एव आचरण के मामजस्य पर गौरव दिया गया है, किन्तु जैन दर्शन मे यह गौरव अधिक स्पष्ट है । सास्य एव अद्वैत वेदान्त के अनुयायी कह सकते हैं कि केवल ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, किन्तु जैनधर्म यह स्पष्ट घोपणा करता है कि मम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एव सम्यक् चारित्र-ये तीनो मिलकर ही मोक्ष नामक परिणाम को उत्पन्न करते है। काशी विश्वविद्यालय वाराणसी-५
देवराज