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जैनाचार की भूमिका
आचार और विचार परस्पर सम्बद्ध ही नही, एक-दूसरे के पूरक भी हैं । संसार मे जितनी भी ज्ञान-शाखाएँ हैं, किसी न किसी रूप मे आचार अथवा विचार अथवा दोनो से सम्बद्ध हैं। व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए ऐसी ज्ञान-शाखाएँ अनिवार्य है जो विचार का विकास करने के साथ ही साथ आचार को भी गति प्रदान करे। दूसरे शब्दो मे जिन विद्याओ मे आचार व विचार, दोनों के बीज मौजूद हो वे ही व्यक्तित्व का वास्तविक विकास कर सकती हैं। जब तक आचार को विचारों का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार आचार रूप में परिणत न हों तब तक जीवन का यथार्थ विकास नही हो सकता । इसी दृष्टि से आचार और विचार को परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक कहा जाता है। आचार और विचार:
विचारों अथवा आदर्शों का व्यावहारिक रूप आचार है। आचार की आधारशिला नैतिकता है। जो आचार नैतिकता पर प्रतिष्ठित नही है वह आदर्श आचार नही कहा जा सकता। ऐसा आचार त्याज्य है। समाज मे धर्म की प्रतिष्ठा इसीलिए है कि वह नैतिकता पर प्रतिष्ठित है। वास्तव मे धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के भीतर रही हई उस भावना के आधार पर ही होती है जिसे हम नैतिकता कहते हैं। नैतिकता का प्रादर्श जितना उच्च