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६ : जैन आचार
होता है, धर्म की भूमिका भी उतनी ही उन्नत होती है । नैतिकता केवल भौतिक अथवा शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नही होती । उसकी दृष्टि मे आध्यात्मिक अथवा मानसिक मूल्यों का अधिक महत्त्व होता है। सकुचित अथवा सीमित नैतिकता की अपेक्षा विस्तृत अथवा अपरिमित नैतिकता अधिक बलवती होती है। वह व्यक्तित्व का यथार्थ एवं पूर्ण विकास करती है।
धर्म का सार आध्यात्मिक सर्जन अथवा आध्यात्मिक अनुभूति है। इस प्रकार के सर्जन अथवा अनुभूति का विस्तार ही धर्म का विकास है । जो आचार इस उद्देश्य की पूर्ति मे सहायक हो वही धर्ममूलक आचार है। इस प्रकार का आचार नैतिकता की भावना के अभाव मे सम्भव नही । ज्यो-ज्यों नैतिक भावनाओ का विस्तार होता जाता है त्यो-त्यो धर्म का विकास होता जाता है। इस प्रकार का धर्मविकास ही आध्यात्मिक विकास है। आध्यात्मिक विकास की चरम अवस्था का नाम ही मोक्ष अथवा मुक्ति है । इस मूलभूत सिद्धान्त अथवा तथ्य को समस्त आत्मवादी भारतीय दर्शनो ने स्वीकार किया है।
दर्शन का सम्बन्ध विचार अथवा तर्क से है, जबकि धर्म का सम्बन्ध आचार अथवा व्यवहार से है। दर्शन हेतुवाद पर प्रतिष्ठित होता है जवकि धर्म श्रद्धा पर अवलम्बित होता है। आचार के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है जबकि विचार के लिए तर्क की। आचार व विचार अथवा धर्म व दर्शन के सम्बन्ध मे दो विचारधाराएँ हैं । एक विचारधारा के अनुसार आचार व