Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 9
________________ प्रस्तावना भारतीय संस्कृति में मुख्यत दो विचारधाराओ का सम्मिश्रण एवं समन्वय हुआ है । एक विचारधारा मूलत वैदिक सभ्यता की थी और दूसरी श्रमण सभ्यता की । वैदिक सभ्यता के आधारस्तम्भ ऋग्वेद आदि सहिता-ग्रन्थ तथा ब्राह्मण ग्रन्थ थे । श्रमण सभ्यता की प्रतिनिधि अभिव्यक्ति जैनधर्म, हिन्दुओ के सांख्य दर्शन तथा बौद्धधर्म में हुई। कुछ लोग वैदिक अथवा ब्राह्मण संस्कृति अर्थात् वह संस्कृति जिमपर ब्राह्मण पुरोहितो का विशेष प्रभाव था और श्रमण संस्कृति के भेद को स्वीकार नहीं करते, किन्तु यह मानना ही होगा कि इन दो विचारधाराओ में पर्याप्त विषमता थी। सहिता-काल के आर्य मुख्यतः प्रवृत्तिवादी जीवनदृष्टि के अनुगामी थे, जबकि जैन-बौद्ध-धर्मों में निवृत्तिपरक जीवन पर गौरव था। स्वयं वैदिक आर्यों के बीच निवृत्ति-धर्म का उदय उपनिषदो में देखा जा सकता है। इसीलिए कुछ अन्वेषको का विचार है कि निवृत्तिपरक जीवनदृष्टियो का सामान्य उत्स उपनिषद्-साहित्य है। किन्तु जैनधर्म की प्राचीनता और महाभारत आदि में सांख्यो के ज्ञानमार्ग एव प्रवृत्तिपरक वैदिक धर्म के विरोध की चर्चाएं यह सकेत देती है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति के पोषक दर्शनो का विकास भिन्न समुदायों के बीच हुआ । भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि की प्रमुख विशेषता मोक्षतत्त्व की स्वीकृति और उसके सम्बन्ध में व्यवस्थित चिन्तन हैं, ये दोनो ही चीजें हमें मुख्यतः श्रमण-सस्कृति के धार्मिक नेताओ से प्राप्त हुई । आगे चलकर, जव हमारी संस्कृति मे प्रवृत्ति एवं निवृत्तिपरक विचारधागओ का समन्वय हुआ, तो यह निश्चित किया गया कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष

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