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* संस्कार *
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उसका कारण संस्कार है। मनुष्य अधिकतर जिन बातोंको सुनता-सुनाता रहेगा, सोचता-विचारता रहेगा, उसी प्रकारके आदमियोंसे मेल-जोल रक्खेगा और तदनुकूल साहित्यका पठन-पाठन रक्खेगा, उसके विचार वैसे ही बन जायेंगे। जिसके श्रात्मा या मनमें बार-बार जैसे विचारोंका आवागमन रहता है, उसकी आत्मामें उसी प्रकारका एक “संस्कार” पड़ जाता है। वह संस्कार ही स्वमत-रुचि और परमत अरुचि पैदा करता है।
लेकिन ऐसा करना है अनुचित । “एक तरफ़की बात गुड़ से भी अधिक मीठी मालूम होती है।" यह वाक्य बहुत कुछ तथ्य रखता है।
विवेकी मनुष्यको इस भद्दी आदतको छोड़नकी कोशिश करनी चाहिये और अन्यान्य धाँकी बातें जाननकी रुचि अपने में उत्पन्न करनी चाहिये । दृसरेकी बाने सहिष्णुताके साथ जाननेकी अभिलापा रखना चाहिये । तदनुसार अन्य धर्मों के साहित्यको पढ़नेका अन्य धर्मोक विद्वानोंसे तत्तद धर्मोक जाननका साधन रखना चाहिये । दूसरे मजहबवालों की सभा-सोसाइटीमें जाने-आनेका समागम रखनसे उस मजहब की सभ्यताका ज्ञान होता है।
इस प्रकारकी आदत डालनेसे मनुष्यका संस्कार एकमुखी न्न रह कर सर्वतोमुखी होजाता है। सर्वतोमुखी संस्कार मनुष्यको सहिष्णु और विवेकी बनाता है।