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* श्रीवीतरागाय नम: *
जेलमें मेरा जैनाभ्यास
प्रथम खण्ड
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जिसने राग द्वेष कामादिक जति, सब जग जान लिया, सब जीवोंको . मोक्ष मार्गका, निस्पृह हा उपदेश दिया । बुद्ध, वार, जिन, हरि, हर. ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कही, भाक्ति-भावसे प्ररित हो. यह चित्त उसीमें लीन रहा ।।
विषयोंकी पाशा नहि जिनक, साम्य-भाव धन रखते हैं, निजपरक हित-साधनमें जो, निश दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थ-त्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगतक, दुख समूहको हरते हैं ।