Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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श्वेताम्बर परम्पराओं में प्राचीन विभाग यही रहा है । स्थानांग, नन्दी आदि में यही उल्लेख है | आगम विच्छेद काल में पूर्वी और अंगों के जो निर्यूहण या शेषांश बाकी रहे उन्हें पृथक् संज्ञाएँ मिली।
अंग-प्रविष्ट
अंग-प्रविष्ट का स्वरूप सदा सब तीर्थंकरों के गणिपिटक भी कहते हैं। जैसाकि द्वादशांगी नाम से ही ग्रन्थों में विभक्त है, जो इस प्रकार है
1. आचारांग
3. स्थानांग
5.
भगवती
7. उपासक दशा
9. अनुत्तरोपपातिकदशा
11. विपाकश्रुत
दृष्टिवाद वर्तमान में अनुपलब्ध है।
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अनंग - प्रविष्ट
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अनंग प्रविष्ट साहित्य तीन भागों में विभक्त है- उपांग, मूल और छेद-सूत्र घनंग प्रविष्ट साहित्य नियत नहीं होता ।
उपांग
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उपांग साहित्य का पल्लवन स्थविर प्राचार्यों ने अंग साहित्य के प्राधार पर ही किया था, ऐसा उसके नाम और संख्या साम्य से प्रतीत होता है ।
उपांग बारह हैं
1. औपपातिक
3. जीवाभिगम
5. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
7. चन्द्रप्रज्ञप्ति
9. कल्पवतॅसिका
11. पुष्पचूलिका
समय में नियत होता है। इसे द्वादशांगी वा स्पष्ट है। बंग साहित्य बारह विभागों या
छेद सूत्र चार हैं।
2. सूत्रकृतांग
4. समवायांग
6. ज्ञाताधर्मकथा
8. प्रन्तकृद्दशा
10. प्रश्न- व्याकरण 12. दृष्टिवाद
अंग-प्रविष्ट के बारहवे धंग दृष्टिवाद के
'वृष्णिदशा' कैसे सुरक्षित रह गया ? यह भी शोध विद्वानों के लिए विचारणीय प्रश्न है
मूल चार हैं
1
2. राजप्रश्नीय
4. प्रज्ञापना
6. सूर्यप्रज्ञप्ति
8. निरयावलिका
10. पुष्पिका 12. वृष्णि दशा
दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार पर नन्दी
लुप्त हो जाने पर भी उसका उपांग
निशीथ व्यवहार, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध
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