Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 311
________________ तैयार की थी, किन्तु दुर्भाग्य से उस कार्य के पूर्ण होने के पूर्व ही उनका निधन हो गया। बेवर और अर्नेस्ट ल्युमनने 'इण्डियन एन्टिक्वेरी' में उस बृहत् संकलन के लगभग 55 पृष्ठ नमूनेके रूपमें मुद्रित कराये थे । वास्तवमें जर्मन विद्वान वाल्टर ब्रिगने सर्वप्रथम जन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी बृहत् सूची तैयार की थी जो 1944 ई० में लिपजिग से प्रकाशित हई और जिसमें 1127 जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंका पूर्ण विवरण पाया जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है । इस प्रकारके कार्योंसे ही शोध व अनुसन्धानकी दिशाएँ विभिन्न रूपोंको ग्रहण कर सकीं। साहित्यिक अध्ययनके अन्तर्गत जैन-पागम-साहित्यिका अध्ययन प्रमुख है। यह एक असन्दिग्ध तथ्य है कि आधुनिक युगमें जैनागमोंका भलीभांति अध्ययन कर उनको प्रकाशमें लानेका श्रेय जर्मन विद्वानोंको है। यद्यपि संस्कृत के कतिपय जैन ग्रन्थोंका अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दीके प्रारम्भमें होने लगा था, किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्यका सांगोपांग अध्ययन डॉ० जेकोबीस प्रारम्भ होता है। डॉ. जेकोबीने कई प्राकृत जैन ग्रन्थोंका सम्पादन कर उनपर महत्त्वपूर्ण टिप्पण लिखे। उन्होंने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जैनागम-ग्रन्थ 'भगवतीसूत्र'का सम्पादन कर 1868 ई० में प्रकाशित किया। तदुपरान्त 'कल्पसूत्र' (1879 ई०), "प्राचारांगसूत्र" (1885 ई०) 'उत्तराध्ययनसूत्र' (1886 ई०) आदि ग्रन्थोंपर शोध-कार्य कर सम्पादित किया। इसी समय साहित्यिक ग्रन्थोंमें जैन कथानोंकी पोर डॉ. जेकोबीका ध्यान गया। सन् 1891 ई० में 'उपमितिभवप्रपंचकथा' का संस्करण प्रकाशित हया। इसके पूर्व 'कथासंग्रह' 1886 ई० में प्रकाशित हो चुका था। 'पउमचरिय', 'रणेमिणाहचरिउ' और 'सरणयकूमारचरिउ' क्रमशः 1914, 1921-22 में प्रकाशित हुए। इसी अध्ययनकी शृखलामें अपभ्रशका प्रमुख कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' का प्रकाशन सन् 1918 में प्रथम बार मंचन (जरमनी) से हा । इस प्रकार जरमन विद्वानों के अथक प्रयत्न, परिश्रम तथा लगातार शोधकार्योंमें संलग्न रहनेके परिणाम स्वरूप ही जैन विद्यानों में शोध व अनुसन्धानके नए आयाम उन्मुक्त हो सके हैं । अॉल्सडोर्फने 'कुमारपालप्रतिबोध' (1928 ई०), हरिवंशपुराण (महापुराणके अन्तर्गत), (1936 ई.), उत्तराध्ययनसूत्र, मूलाचार, भगवतीमाराधना (1968) आदि ग्रन्थोंका सुसम्पादन कर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य पर महान कार्य किया । वाल्टर शुब्रिगने 'दसवेयालियसुतं' का एक सुन्दर संस्करण तथा अंगरेजी अनुवाद तैयार किया जो 1932 में अहमदाबादसे प्रकाशित हुमा। उनके द्वारा ही सम्पादित 'इसिभासियं' भा० 2 (1943 ई०) में प्रकाशित हुए। शुबिंग और केल्लटके सम्पादन में तीन छेदसूत्र "पायारदसायो, ववहार और निसीह" (1966 ई०) हैम्बुगंसे प्रकाशित हुए । इसी प्रकार जे० एफ० कोलका 'सूर्यप्रज्ञप्ति' (1937 ई०), डब्ल्यु किफेलका 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' (1937 ई०), हम्मका 'गीयत्थविहार' (महानिशीथका छठा अध्ययन) (1948 ई०), क्लॉसका 'चउपन्नमहापूरिस चरियं' (1955 ई०), नॉर्मनका स्थानांगसूत्र' (1956), मॉल्सडोर्फका 'इत्थिपरिन्ना' (1958 ई०), ए० ऊनोका 'प्रवचनसार' (1966 ई०), तथा टी० हनाकीका ‘अनुयोगद्वारसूत्र' (1970) इत्यादि प्रकाशमें पाये। 1925 ई० में किरफल (Kirfel) ने उपांग 'जीवाजीवाभिगम' के सम्बन्धमें प्रतिपादन कर यह बताया था कि वस्तुत: यह 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' से सम्बद्ध है। सन् 1926 में वाल्टर शुब्रिगने अपनी पुस्तक 'वोर्त महावीराज' के परिचयमें जैनागमोंके उद्भव व विकास के साथ ही उनका साहित्यिक मूल्यांकन भी किया था। सन् 1929 में हैम्बर्ग से काम्पत्ज (Kamptz) ने प्रागमिक प्रकीर्णकोंको लेकर शोधोपाधि हेतु अपना शोध-प्रबन्ध 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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