Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 312
________________ प्रस्तुत कर डॉक्टरेट प्राप्त की थी। जैनागमके टीका-साहित्य पर सर्वेक्षणका कार्य अर्नेस्ट ल्यूमनने बहुत ही परिश्रमपूर्वक किया था, किन्तु वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । अनन्तर “अोवेरश्चिट प्रोवेर दि आवश्यक लिटरेचर" के रूप में उसे वाल्टर शुब्रिगने 1934 ई० में हम्बर्गसे प्रकाशित किया। इस प्रकार जैनागम तथा जैन साहित्यकी शोध-परम्पराके पुरस्कर्ता जरमन विद्वान रहे हैं। आज भी वहां शोध व अनुसन्धानका कार्य गतिमान है । सन् 1935 में फेडेगन (Faddegon) ने सप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्दके 'प्रवचनसार' का अंगरेजी अनुवाद किया था। इस संस्करणकी विशेषता यह है कि प्राचार्य अमृतचन्द्रकी 'तत्त्वप्रदीपिका' टीका, व्याख्या व टिप्पणोंसे यह समलंकृत है। ऐसे अनुवादों की कमी अाज बहुत खटक रही है। इस तरहके प्रकाशनकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिये। वर्तमान युगमें सम्यक् भाव-बोधके लिए सम्यक दिशामें सम्यक् कार्य होना नितान्त अपेक्षित है । साहित्यिक विधानोंमें जैन कथा-साहित्य पर सर्वप्रथम डॉ० जेकोबीने प्रकाश डाला था। इस दिशामें प्रमुख रूपसे अर्नेस्ट ल्युमनने पादलिप्तसूरिको 'तरंगवतीकथा' का जर्मन भाषामें सुन्दर अनुवाद 'दाइ नोन' (Die Nonne) के नामसे 1931 ई० में प्रकाशित किया था। तदनन्तर हर्टेलने जैन कथानोंपर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। क्लास ब्रहनने "शीलांकके चउपन्नमहापुरिसचरिय" पर शोधोपाधि प्राप्त कर सन् 1951 में उसे हैम्बुर्गसे प्रकाशित किया। प्रार. विलियम्सने 'मणिपतिचरित' के दो रूपोंको प्रस्तुत कर मूल ग्रन्थका अंगरेजी अनुवाद किया। इस तरह समय-समय पर जैन कथासाहित्य पर शोध-कार्य होता रहा है। जैनदर्शनके अध्ययनकी परम्परा हमारी जानकारीके अनुसार आधुनिक कालमें अल्बख्त बेवरके 'फेगमेन्ट प्राव भगवती' के प्रकाशनसे 1867 ई० से मानना चाहिए। कदाचित् एच० एच० विल्सनने “ए स्केच व द रिलीजियस सेक्ट्स प्रॉव द हिन्दूज" (जिल्द 1, लन्दन, 1862 ई०) पुस्तकमें जैनधर्म तथा जनदर्शनका उल्लेख किया था। किन्तु उस समय तक यही माना जाता था कि जैनधर्म हिन्दूधर्मकी एक शाखा है। किन्तु बेवर, जेकोबी, ग्लासनेप आदि जरमन विद्वानोंके शोध व अनुसन्धान-कार्योंसे यह तथ्य निश्चित व स्थिर हो गया कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र दर्शन व मौलिक परम्परा है। इस दृष्टि से डॉ० हेल्मुथ वान ग्लासनेपकी पुस्तक “द डाक्ट्रीन ऑव जर्मन इन जैन फिलासफी" अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो सन् 1942 में बम्बई से प्रकाशित हुई थी। ऐतिहासिक दृष्टिसे जीमर और स्मिथके कार्य विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। एफ० डब्ल्यू० थामसने प्रा० हेमचन्द्र कृत 'स्याद्वादमंजरी' का बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद किया जो 1960 ई० में बलिनसे प्रकाशित हमा। 1963 ई० में पार० विलियम्सने स्वतन्त्र रूपसे जैनयोग' पर पुस्तक लिखी जो 1963 ई० लन्दनसे प्रकाशित हुई। कोलेट केल्लटने जैनोंके श्रावक तथा मुनि प्राचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक "लेस एक्सपिएशन्स डान्स ले रिचुअल एन्शियन डेस रिलिजियक्स जैन" लिखकर 1965 ई० में पेरिससे प्रकाशित की। वास्तव में इन सब विषयों पर इस लघु निबन्धमें लिख पाना सम्भव नहीं है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि परमाणुवादसे लेकर वनस्पति, रसायन प्रादि विविध विषयोंका जैनागमोंमें जहां-कहीं उल्लेख हना है, उनको ध्यानमें रखकर विभिन्न विद्वानोंने पत्र-पत्रिकामोंके साथ ही विश्वकोशों में भी उनका विवरण देकर शोध व अनुसन्धानकी दिशानोंको प्रशस्त किया है। उनमें में जनोंके दिगम्बर साहित्य व दर्शन पर जर्मनी विद्वान् वाल्टर डेनेके (Walter Denecke) ने अपने शोध-प्रबन्धमें दिगम्बर आगमिक ग्रन्थोंका भाषा व विषयवस्तु दोनों रूपोंमें पर्यालोचन किया 74 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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