Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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जन भाषा में उनका साहित्य उपलब्ध होता है तो वह है प्रपभ्रंश भाषा परन्तु वह भी देश-काल की दृष्टि से ही नहीं वरन् विषय एवं विधात्रों की दृष्टि से भी सीमित है श्रौर जैन साहित्य की तरह विशाल नहीं है ।
जैन साहित्य प्राकृत भाषाश्रों में हर एक शताब्दी का अल्पांश या अधिकांश रूप में उपलब्ध है और उससे हर शताब्दी में बोली जाने वाली भाषा का स्वरूप जाना जा सकता है। भाषाकीय दृष्टि से जैन प्राकृत साहित्य की यही विशेषता है और इसके फलस्वरूप भारतीय भाषाओं के विकास का ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है । अतः ऐसा कहने में क्या कोई अतिशयोक्ति है कि भारतीय भाषाओं के विभिन्न प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने में इस देश की संस्कृति को जैनों का अद्वितीय प्रदान रहा है ?
ध्यक्ष, प्राकृत-पाति विभाग
भाषा साहित्य भवन गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद (गुजरात)
मूच्छित मनुष्य प्रशान्ति से पीड़ित होता है, समता भाव से दरिद्र होता है, उसको अहिंसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना कठिन होता है तथा वह अध्यात्म को समझने वाला नहीं होता है। इस लोक में मूच्छित मनुष्य प्रति दुःखी रहता है।
जो ममता वाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह ममता वाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममता वाली वस्तु नहीं है वह ही ऐसा ज्ञानी है, जिसने प्रध्यात्म पथ जाता है ।
( आचारांग सूत्र, 97)
अहिंसा ही तो जगत को माता है, क्योंकि समस्त जीवों की प्रतिपालना अहिंसा ही आनन्द की परिपाटी है। हिंसा ही उत्तम गति और शाश्वत लक्ष्मी है। उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसा में ही हैं।
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( आचारांग सूत्र 10)
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करने वाली है । जगत में जितने
(ज्ञानाव 8-32)
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