Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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महावीर का विचार था कि आर्थिक समानता के बिना सामाजिक समानता अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती और राजनैतिक स्वाधीनता भी प्राथिक स्वाधीनता के अभाव में कल्याणकारी नहीं बनती । इसलिये महावीर का बल अपरिग्रह भावनापर भी रहा । श्रावक के व्रतों पर जब हम चिन्तन करते हैं तो लगता है कि अहिंसा के समानान्तर ही परिग्रह की मर्यादा और नियमन का विचार चला है । गृहस्थ के लिये महावीर यह नहीं कहते कि तुम संग्रह न करो। उनका बल इस बात पर है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो और जो संग्रह करो उस पर स्वामित्व की भावना मत रखो। जब तक स्वामित्व का भाव है-संघर्ष है, वर्ग भेद है। वर्ग विहीन समाज रचना के लिए स्वामित्व का विसर्जन जरूरी है। महावीर ने इसके लिए परिग्रह को सम्पत्ति नहीं कहा, उसे मूर्छा या ममत्व भाव कहा है।
इसीलिये महावीर ने श्रावक के व्रतों में जो व्यवस्था दी है वह एक प्रकार से स्वैच्छिक स्वामित्व विर्सजन और परिग्रह मर्यादा, सीलिंग की व्यवस्था है। प्राथिक विषमता के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के उपार्जन के स्रोत और उपभोग के लक्ष्य मर्यादित और निश्चित हों। व्रत इस बात पर बल देते हैं कि चोरी करना ही वर्जित नहीं है बल्कि चोर द्वारा चराई हई वस्तु को लेना, चोर को प्रेरणा करना, उसे किसी प्रकार की सहायता करना, राज्य नियमों के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, झूठा मापतोल करना, झूठा दस्तावेज लिखना, झठी साक्षी देना, वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना आदि सब पाप हैं। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए भगवान महावीर ने खेत, मकान, सोना-चांदी आदि जेवरात, धन-धान्य, पशु-पक्षी-जमीनजायदाद आदि को मर्यादित करने पर जोर दिया है और इच्छाओं को उत्तरोत्तर नियन्त्रित करने की बात कही है। अर्थार्जन के ऐसे स्रोतों से बचते रहने की बात कही गयी है जिनसे हिंसा बढ़ती है, कृषि उत्पादन को हानि पहुंचती है और असामाजिक तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है। भगवान महावीर ने ऐसे व्यवसायों को कर्मादान की संज्ञा दी है और उनकी संख्या पन्द्रह बतलायो है। आज के संदर्भ में जंगल में प्राग लगाना, जंगल आदि कटवाकर बेचना, असंयत जनों का पोषण करना अर्थात् असामाजिक तत्वों को पोषण देना आदि पर रोक का विशेष महत्व है।
3-लोककल्याण : जैसा कि कहा जा चुका है भगवान ने संग्रह का निषेध नहीं किया है बल्कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करने को कहा है। इसके दो फलितार्थ हैं-एक तो यह कि व्यक्ति अपने लिए जितना आवश्यक हो उतना ही उत्पादन करें और निष्क्रिय बन जाय । दूसरा यह कि अपने लिए जितना प्रावश्यक हो उतना तो उत्पादन करें ही और दूसरों के लिए जो अावश्यक हो उसका भी उत्पादन करें। यह दूसरा अर्थ ही अभीष्ट है । जैन धर्म पुरुषार्थप्रधान धर्म है । अतः यह व्यक्ति को निष्क्रिय व अकर्मण्य बनाने की शिक्षा नहीं देता । राष्ट्रीय उत्पादन में व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका को जैन दर्शन स्वीकार करता है पर वह उत्पादन शोषण, जमाखोरी और प्रार्थिक विषमता का कारण न बने, इसका विवेक रखना आवश्यक है। सरकारी कानून-कायदे तो इस दृष्टि से समय-समय पर बनते ही रहते है, पर जैन साधना में व्रत-नियम, तप-त्याग और दान-दया के माध्यम से इस पर नियन्त्रण रखने का विधान है। यहां सेवा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसी सेवा-भाव से धर्म का सामाजिक पक्ष उभरता है। जैन धर्मावलम्बी शिक्षा, चिकित्सा.
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