Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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जैन दर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्व
डॉ० नरेन्द्र भानावत
भारतीय समाज व्यवस्था में जनतन्त्र केवल राजनैतिक संदर्भ ही नहीं है। यह एक व्यापक जीवन पद्धति है, एक मानसिक दृष्टिकोण है जिसका सम्बन्ध जीवन के धार्मिक, नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी पक्षों से है। इस धरातल पर जब हम चिन्तन करते हैं तो जैन दर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के निम्नलिखित मुख्य तत्व रेखांकित किये जा सकते हैं :
1. स्वतन्त्रता
समानता
लोककल्याण 4. धर्मनिरपेक्षता
1. स्वतन्त्रता : स्वतन्त्रता जनतन्त्र की प्रास्मा है और जैन दर्शन की मूल भित्ति भी। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिए न तो वह किसी दूसरे द्रव्य पर प्राश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है जिसका अभिप्राय है जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। सद्प्रवृत्त आत्मा ही उसका मित्र है और दुष्प्रवृत्त प्रात्मा ही उसका शत्रु है। वह अपनी साधना के द्वारा पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है । वह स्वयं परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन में यही जीव का लक्ष्य माना गया है। यहां स्वतन्त्रता के स्थान पर मुक्ति शब्द का प्रयोग हुमा है। इस मुक्ति प्राप्ति में जीव की साधना और उसका पुरुषार्थ ही मुख्य साधन हैं। चूकि जैन दृष्टि में प्रात्मा ही परमात्मदशा प्राप्त करती है, अतः यहाँ व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनों से मुक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है।
__ जैन दर्शन की यह स्वतन्त्रता निरंकुश या एकाधिकारवादिता की उपज नहीं है। इसमें दूसरों के अस्तित्व की स्वतन्त्रता की भी पूर्ण रक्षा है। इसी बिन्दु से अहिंसा का सिद्धान्त उभरता है जिसमें जन के प्रति ही नहीं प्राणी मात्र के प्रति मित्रता और बन्धुत्व का भाष है। प्रमाद द्वारा किसी
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