Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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क्रांति विचार-परिवर्तन, मान्यता-परिवर्तन और मूल्य-परिवर्तन को कहते हैं और जबरदस्ती से मूल्य नहीं बदले जा सकते हैं । अत: जितनी ही ज्यदा हिंसा होगी, उतनी ही कम क्रांति होगी। इसलिये समाज-परिवर्तन और क्रांति के लिए अब तो एक मात्र रास्ता बच गया है-अहिंसा का ।
अहिंसा कोई धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं, यह हमारा जीवन-धर्म होना चाहिए। यही कारण है कि अहिंसा की साधना मनसा, वाचा और कर्मणा होनी चाहिये । कर्म की स्थूल हिंसा भी उतनी ही विस्फोटक एवं खतरनाक होती है जितनी मन की। विचार का साम्राज्यवाद और एकान्तिकता ही तो हिंसा के बीज निर्माण करते हैं जो कभी वचनों में फटते हैं तो कभी कर्म में । इसीलिए विचार के क्षेत्र में अनेकान्तवाद, वाणी के संदर्भ में स्याद्वाद एवं व्यवहार में अहिंसा-ये तीनों जैन धर्म की मानवता को एक बड़ी देन हैं।
अहिंसा की साधना शून्य में नहीं हो सकती, वह तो समाज में ही होगी। अाधुनिक युग में राजनैतिक साम्राज्यवाद के दिन तो लद चूके हैं, लेकिन पार्थिक साम्राज्यवाद का युग कायम है । अाज बाजार की खोज में अन्तर्राष्ट्रीय-युद्ध की आशंका बढ़ती जाती है। आर्थिक साम्राज्यवाद विषमता एवं शोषण पर अधिष्ठित है। यदि हत्या हिंसा है तो परिग्रह भी हिंसा ही है । विषमता भी हिंसा ही है। श्रमण-संस्कृति एवं जैन-परम्परा में साम्य दृष्टि प्राचार एवं विचार दोनों में प्रकट हुई है । जैन धर्म का बाह्य-पाभ्यंतर, स्थूल-सूक्ष्म सब प्राचार साम्य दृष्टिमूलक अहिंसा के केन्द्र के अासपास ही निर्मित हुअा है। जिस प्राचार के द्वारा हिंसा का रक्षण और पोषण हो, ऐसे किसी भी प्राचार को जैन परम्परा मान्य नहीं करती है। विचार में साम्य दृष्टि की भावना से ही अनेकान्तवाद नि:सृत हुआ । केवल अपनी दृष्टि या विचार को ही पूर्ण सत्य मानकर उस पर प्राग्रह रखना यह साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसी भूमिका में से भाषा-प्रधान स्याबाद और विचार-प्रधान नयवाद का क्रमशः विकास हुआ है। इसी प्रकार लोकजीवन में अहिंसा की साधना के लिए अपरिग्रह या परीग्रहपरिमाणाणुव्रत का विचार पाया। अपरिग्रह व्रत के बिना अहिंसा की साधना ही असंभव मानी गयी है। यही कारण है कि जैनों ने ही नहीं अहिंसा के महान् साधक बुद्ध, ईसा और गाँधी आदि सबों ने अपरिग्रह एवं अाधुनिक संदर्भ में सादा एवं सरल जीवन पर जोर दिया है। आज तो अावश्यकताओं की वृद्धि का राग जिस पंचम स्वर में गाया जा रहा है एवं सम्पत्ति की मर्यादा जिस प्रकार असीम हो रही है, भोग-विलास के द्वार जिस प्रकार प्रशस्त हो रहे हैं, उस संदर्भ में अपरिग्रह ही एक मात्र शस्त्र है जो सम्पत्ति संग्रह की अस्वस्थ जोड़ से उत्पन्न हिंसा से हमें बचा सकता है। इसी को हम चाहें तो प्रात्मसंयम का नाम दें या इसे हम स्वैच्छिक दरिद्रता (voluntary poverty) की संज्ञा दें। लोभ की अनियन्त्रित उद्दाम घारा ही आज प्रान्तरिक कलह एवं अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष की जड़ में है।
महावीर की अपरिग्रह भावना को गांधी ने ट्रस्टीशिप के रूप में रखा । बापू जैसे अहिंसाभक्त ने कहा था "स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यदि दौलतमन्द अपनी मर्जी से सम्पत्ति का वितरण गरीबों में नहीं करेंगे, तो खूनी क्रांति को कोई रोक नहीं सकेगा।" इसलिये आज हमारे सामने दो ही विकल्प हैं-या तो व्यक्ति सम्पत्ति रखते हुए भामाशाह या सेठ जमनालाल बजाज बनकर यश प्राप्त करें या फिर सत्ता लोलूपों के चरणों में नित्य अपमानित होकर भी अन्त में रक्त क्रांति में हविष्य बनने के लिये विवश होकर तैयार रहें। जिसे जैन दर्शन अपरिग्रह कहता है, उसे हम सरल
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