Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 300
________________ मुगलों के जमाने में भी राजस्थान में अनेक जैन शूरवीरों की कथायें इतिहास के पन्नों में शोभा पा रही हैं। इसलिये जैन अहिंसा के साथ पराधीनता और कायरता को जोड़ना भी अन्याय है। आज तो शस्त्र से वीरता समाप्त हो चुकी है। हम परमाणु युग में पहुँच चुके हैं। आणविक शस्त्रों का एकाधिकार भी समाप्त हो चुका है । आज के अणुबम ऐसे शक्तिशाली हैं जिनके सामने हिरोशिमा-नागाशाकी पर छोड़े जाने वाले बम खिलौने जैसे हैं । अतः महानाश के लिए दो-तीन मिनट ही पर्याप्त होंगे। प्राणविक युद्ध में विजय-पराजय की विभाजन रेखा नहीं रहेगी, विजयोल्लास मनाने वाला कोई न रहेगा, न पराजय की शर्म से कोई मरेगा । जो लोग सीमित अणुयुद्ध की बात करते हैं, वे भूल जाते हैं कि रेडियोधर्मिता से उत्पन्न जहर प्रजनन शास्त्र को ही सण्डित कर देगा । ऐसी स्थिति में अणु-बम का एक मात्र विकल्प अहिंसा है । यह ठीक है कि आज महाशक्तियां घातक अस्त्रों से अपने को सुसज्जित कर रही हैं लेकिन वह एक प्रबंधना है वे जानती हैं कि युद्ध होने पर दोनों पक्षों का सर्वनाश सुनिश्चित है। इसलिये महिसा कोई अंधविश्वास, कोई पाखंड और कोई पागलपन नहीं यह तो परिस्थिति का अनिवार्य आदेश है। यह कोई जीर्ण-शीर्ण मानवीय करणा से उत्पन्न दुर्बल और कालबाह्य भावना नहीं, यह तो मानव अस्तित्व के लिये आर्तनाद है। यह ठीक है कि हिंसा पर से हमारा विश्वास उठ चुका है लेकिन खेद है कि अहिंसा पर विश्वास जमा नहीं है। यद्यपि आज के विश्व में हिंसा उपयोगी और अवैधानिक सिद्ध हो चुकी है, फिर भी अहिंसा का आचरण नहीं हो रहा है । आज इसीलिये युद्ध का भय, घुटन, संत्रास मानव को दुखी कर रहा है। विश्वयुद्ध की भूमि से हिंसक सेना के पैर तो उखड़ चुके हैं लेकिन समाज परिवर्तन के लिए हिसा का लोभ बाकी है। यह ठीक है कि समाज के आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन में शोषण, अन्याय, उत्पीड़न कायम है और इस यथास्थिति को बर्दाश्त करना न अहिंसक है न वीरता यह तो कायरता ही है। यदि हत्या हिंसा है, तो शोषण और विषमता, अन्याय और भ्रष्टाचार भी हिंसा ही हैं । यह सूक्ष्म हिंसा ज्यादा खतरनाक है। यदि किसी मासूम बच्चे की गर्दन काटना हिंसा है, तो करोड़ों को डालडा के नाम पर गाय और सूधर की चर्बी खिलाना भी उससे अधिक कुत्सित और गहित हिंसा है । तो प्रश्न उठता है कि अार्थिक शोषण एवं विषमता, नागरिक स्वतंत्रता एवं सांस्कृतिक स्वायत्तता आदि के लिए क्या हिंसा का सहारा लिया जाय ? हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है और प्रतिहिंसा का कहीं अन्त नहीं है। हिंसा के द्वारा समाज परिवर्तन का प्रयास एक मृगमरीचिका है। हिसा का अर्थ है, दबाव और दबाव या जोर-जबरदस्ती से जो भी परिवर्तन होगा, वह अस्थायी होगा । इतिहास भी इसका साक्षी है कि हिंसक क्रांति में मानवीय मूल्यों का दलन तो हो ही जाता है. समाज का वातावरण घृणा विद्वेष आदि से विषाक्त भी हो जाता है। हिंसक क्रांति के गर्भ अधिनायकवाद का ही राक्षस जन्म लेता है, जैसे फ्रान्स की राज्य क्रांति से नेपोलियन, इंगलैण्ड में चार्ल्स प्रथम की हत्या के बाद क्रामवेल, रूस में ज़ार के वश के समूलोच्छेद के बाद स्टालिन एवं बगलादेश में मुजीब की हत्या के बाद जियाउर रहमान प्राज विज्ञान ने राज्य को इतना शक्तिशाली एवं शस्त्र सम्पन्न बना दिया है कि शस्त्र शक्ति से हिंसक आंदोलन बिल्कुल निरुपाय हो जाते हैं। मतः बाज समाज परिवर्तन के लिए हिंसा अत्यन्त अव्यावहारिक भी हो गयी है। सिद्धान्तरूप से भी 62 , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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